Share This Post

ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि श्रीपालजी ने सेठ को अपने पास रखा धर्म का बाप समझ कर यह उनकी सज्जनता थी।

परंतु जो दुर्जन होता है, वह कभी भी अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ता। एक रात में सेठ श्रीपाल को मारने के लिये कटार लेकर के रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ा पर सातवें मंजिल से धडाम से नीचे गिरा हाथ की कटार छाती में घुस गई और मरकर सातवीं नरक में चला गया।

जैसी करणी वैसी भरणी – कहावत चरितार्थ हो गई, श्रीपाल जी ने बड़प्पन विचार करके चंदन की लकड़ीयों में दाह संस्कार करके सारे कार्यक्रम कर दिये। आनंद के साथ रहते हुए एक दिन बगीचे में घूमने गये। वहां पर व्यापारी लोग आये हुवे थे।

उनसे पूछा कोई नई बात बताएं – उन्होंने कहा – यहां से 400 कोश पर कुंडलपुर नगर के मकर के केतु राजा कपूर तिल का रानी उनके सुंदर दो पुत्रों के बाद एक पुत्री गुण सुंदर चौसठ कला में निपुण राग रागिनी की कला निधान थी कन्या ने प्रतिज्ञा की जो मुझे वीणा वादन में पराजित कर देगा।

उसी के साथ विवाह होगा सार्थ वाह को इनाम देकर श्रीपाल अपने महलों में आये और नवपद की आराधना मन वचन काया से करने लगे। तब प्रथम कल्प का देवता विमलेश्वर नवपद का रक्षक प्रकट हुआ और प्रसन्न होकर एक हार दिया। उसके चार गुण बताये।

( 1 ) जो रूप बनाना चाहो ( 2 ) मन इछिथस्थान पर जाना चाहो ( 3 ) बिना अभ्यास के ज्ञान की प्राप्ति व ( 4 ) जहर का शमन होना और बोला जब भी कोई काम हो तो याद कर लेना हाजिर हो जाऊंगा बोल करके देव चला गया।

रात्रि विश्राम के बाद प्रातः श्रीपाल जी ने नवपद का सुमिरन करके कुंडलपुर जाने का सोचा तो तुरंत कुंडलपुर नगर में पहुंच गये। वहां घर घर में वीणा के वादन की आवाज आ रही थी। श्रीपालजी समय पास करने के लिये कलाचार्य के पास गये और वीणा बजाना सिखाने के लिये गुरु को सोने की मुठ वाली तलवार भेंट की।

कलाचार्य ने प्रसन्न होकर अपनी वीणा श्रीपाल जी के हाथ में दी सारे सीखने वाले मजाक करने लगे। वाह क्या रूप है राजकुमारी इसका ही वरण करेगी श्रीपालजी को तो कुतुक करना था। इसलिये वीणा के तार को जोर से खींचा जिससे तार टूट गये सभी हंसने लगे। इस प्रकार टाइम पास किया परीक्षा के दिन सभा मंडप में कुबड़े के रूप में थे तो वॉचमेन ने अंदर जाने नहीं दिया।

श्रीपालजी ने तुरंत एक गहना उसके हाथ में रख दिया, कहते हैं पैसा क्या नहीं कराता। सब के पीछे बैठ गये राजकुमारी साक्षात सरस्वती के रूप में आती है। श्वेत वस्त्र धारण किये एक हाथ में वीणा दूसरे हाथ में पुस्तक सरस्वती का अवतार मालूम हो रहा था श्रीपालजी का असली रूप राजकुमारी देख पा रहा था।

बाकी लोग तो कुबड़े के रूप में ही देख रहे थे। कार्यक्रम प्रारंभ हुआ सभी वीणा वादन किया पर राजकुमारी को कोई भी जीत नहीं सका। जब श्रीपाल जी उठे तो सब हंसने लगे – परंतु राजकन्या ने अपने हाथ की वीणा दी तो सब आश्चर्य करने लगे। श्रीपालजी ने वीणा हाथ में लेकर कहा गर्भित दग्ध वीणा है।

उसे ठोक पीठ कर फिर बजाना शुरू किया – देखते – देखते सभी लोग बेहोश हो गये। सभी के गले में से व शरीर पर जो भी गहने थे वे सब उतार कर ढेर लगा दिया। राजकन्या ने तुरंत वरमाला श्रीपालजी के गले में पहना दी। राजा ने देखा तो चिंता हो गई, सो कहा जैसा ज्ञान है वैसा रूप शरीर होता तो कितना अच्छा होता।

उसी समय श्रीपालजी अपने असली रूप में आ गये। धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। आनंद से रहने लगे – एक दिन एक प्रदेसी ने बताया कि यहां से 300 योजन पर कंचनपुर है देव लोक के समान। वहां व्रज सेन राजा कंचनमाला रानी उनके चार पुत्र पे एक पुत्री तिलोक सुंदरी, सर्वांग सुंदर, वर सुंदर मिले इसके लिये स्वयंवर रचाया गया और आषाढ़ वदी बीज का शुभ .समय रखा है।

श्रीपाल जी ने अपना कंदोरा निकाल कर दे दिया। दूसरे दिन प्रातः को हार के प्रभाव को कुबड़ा बन करके कंचनपुर पहुंच गये। द्वारपाल ने रोका तो एक गहना उसे दे दिया कहां है जर दी दम, फलोद नरम, पैसा रस्ता बना देता है।

मंडप में जो सोने की पुतली बनी थी उसके पास बैठ गये, वहां राजा रईस बैठे थे, उन्होंने कुबड़े को देखा तो हंसते हुए कहने लगे अब राज कन्या इस कुबड़े को ही वरण करेगी तभी जन्म सफल होगा। इतने में कन्या ने प्रवेश किया सभी उसे देखने लगे श्रीपाल जी ने कन्या को अपना असली रूप दिखाया।

इधर वो सोने की पुतली बोलने लगी देखती क्या हो जल्दी से वरमाला इन के गले में डाल दें कन्या ने वरमाला पहना दी। यह देख करके सारे राजा लोग कहने लगे, लड़की से भूल हो गई। अतः गले में से माला निकाल दें क्योंकि हम सब हंस है और तू कौआ है।

श्रीपालजी ने कहा दुर्भागियो पर स्त्री की कामना करते हो इसने तुम सबको छोड़कर मेरा वरण किया। अतः यह मेरी रानी है इसकी तरफ पाप की नजर मत डालो नहीं तो पापियों का पाप निवारण के लिये मेरी यह तलवार तीर्थ के समान है।

बात बात में युद्ध शुरू हो गया श्रीपाल जी ने अपने बाहुबल से सभी राजाओं को सेना सहित परास्त कर दिया। यह देखकर राजा जी ने कहा काश जैसा शौर्य शक्ति युद्ध में दिखाई वैसे ही शरीर की सुंदरता होती तो सोने में सुहागा हो जाता।

उसी समय श्रीपाल जी ने अपना असली रूप प्रकट किया सभी बड़े प्रसन्न हुवे। उस समय देवताओं ने फूलों की बरसात की आनंद से वहां रहने लगे। एक दिन श्रीपाल जी से कहा कि दलपत नगर में धरा पाल राजा व चौरासी रानियों में गुणमाला पटरानी थी। जिसके पांच बेटों के बाद एक लाडली बेबी श्रृंगार सुंदरी हुई , उसके पांच सहेलियां थी पंडिता विच क्षणा प्रगुणा निपुणा और दक्षा – सभी ने नक्की किया। अभी तक साथ है तो आगे भी हमेशा साथ ही रहेगे उसके लिये सभी एक ही पति का वरण करेंगे तभी साथ निभ सकता है। साथ ही हमें जैन धर्म मानने वाला पति मिलना चाहिये। इसके लिये हम एक एक समस्या रखेंगे और जो हमारी समस्या का समाधान करेगा उसी को हम अपना पति बनायेगे।

ऐसा निश्चित करके राजा जी से ऐलान करा दिया। बहुत लोग आये परंतु कोई भी सही समाधान नहीं कर पाया श्रीपाल जी ने समाचार देने वाले को इनाम देकर के विदा किया दूसरे दिन हार के प्रभाव से दलपत नगर में पहुंच गये सभा मंडप में जाकर पुतली के मस्तक पर अपना हाथ रखा और पुतले से बुलवाया कहो क्या समस्या है।

– ( 1 ) पंडिता कि और से मन वांछित फल होई उत्तर पुतले की ओर से – अरिहंत आदि नवपद का मन वचन काया से जो सुमिरण करेगा – उसके मन इच्छित फल होता ( 2 ) विचक्षणा – और न देखो कोई – उत्तर पुतले – अरिहंत देव सूसाधु गुरु धर्म दया मय नवकार मंत्र का सदा ही सुमरण करो फिर किसी और को देखने की जरूरत नहीं है, ( 3 ) प्रगुणा की – कर सफलो अप्पाण उत्तर पुतले – देव गुरु धर्म की आराधना करो और सुपात्र दान देवो – तप संयम और पर उपकार करो – जिससे हमारे हाथ सफल होते हैं – ( 4 ) निपुणा कि और जितना लिखा लिलाड उत्तर पुतले कि और – है जीव तू क्यों चिंता करता है ,उतना ही मिलेगा जितना लिलाड में लिखा होगा ,

( 5 ) दक्षा की ओर – उसका सारा जग दास होता है – उत्तर पुतले भगवान ने फरमाया है कि जिसने पूर्व जन्म शुभ कर्म कमाया है उस आत्मा के बल , बुद्धि लक्ष्मी आदि समस्त संसार दास होते हैं – ( 6 ) श्रृंगार सुंदरी की – सूर्य से पहले उदय होता है उत्तर पुतले की ओर से जिसने जीवित रहते हुए यश नाम नहीं कमाया वह जीवित होते हुए भी मरे के समान है और जो यश ले कर के गया -वह सूर्य से पहले उदय होता है , सभा में अदभुत रंग बिखर रहा था इन प्रश्न उत्तर को सुन और देख रहे थे – उन्हें भी आनंद की अनुभूति हो रही थी बड़े ठाठ से श्रीपालजी का एक की मंडप में सब के साथ विवाह हो गया और अब आनंद से रहे थे।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar