साध्वी पद्मकीर्ति म.सा.

साध्वी पद्मकीर्ति म.सा.

साध्वी पद्मकीर्ति म.सा. का जन्म माता श्रीमती आशाबाई डुंगरवाल एवं पिता श्रीमान वसंतलाल डुंगरवाल के घर आंगन 22 सित बर 1979 में हुआ। 23 जनवरी 2007 को उन्होंने दीक्षा प्राप्त किया। युवा पीढ़ी धर्म से जोडऩे के लिए काम कर रही साध्वी पद्मकीर्ति ने बी.काम, डी.टी.एल तथा एम.ए की शिक्षा प्राप्त की है। उन्होंने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, रिछा (मध्यप्रदेश) की यात्रा की है। उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, राजस्थानी एवं गुजराती भाषा की अच्छी जानकारी है। स्व के साथ परहित हेतु स्वयं को गुरुणी चरणों में समर्पित करना। बच्चों को संस्कारित करना। खासकर युवा पीढ़ी को जो धर्म से विमुख होती जा रही है, उसे धर्म से जोडऩा। युवकों से उनका कहना है कि समय आ गया है समाज को बदलो, समय आ गया है रिवाज को बदलो। इन्हें बदलने का काम युवक ही करेंगे कल को बदलने के लिए आज को बदलो। युवा पीढ़ी के माध्यम से समाज के लिए ऐसे रचनात्मक कार्य करना, जिससे स पूर्ण मानव जाति का भला हो। युवकों को व्यसनमुक्त करके एक स्वस्थ समाज की संरचना करना। धर्म परार्थ को बढ़ाता है। जहां परार्थ है वही परमात्मा है, सच्चिदानंद है और वही परम सुख है। वही सच्चा धर्म है, जो व्यक्ति में चरित्र विकास के साथ नैतिकता का भी विकास करे। धर्म करने की चीज नहीं है, धर्म तो जीने की चीज है। हमारी वाणी और व्यवहार में सामंजस्य हो। हमारी कथनी और करनी एक हो। हर पल, हम धर्ममय जीवन जीएं। धर्म करते करते सारी उमर बीत गई फिर भी जीवन में परिवर्तन नहीं आया तो फिर ऐसे धर्म को ढोने से क्या फायदा? जिस दिन हम सही मायने में धर्म करना शुरू कर देंगे तब हमें और कुछ करने की जरूरत ही नहीं रहेगी। जहां जहां शुद्ध एवं पवित्र धर्म का पालन होगा वहां स्वत: ही भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त हो जाएगी। धर्म से हम भवो भव के बंधन को कम करके आध्यात्मिक प्रगति करते हुए मोक्ष के अधिकारी बन सकते है। सच्ची श्रद्धा, निष्ठा, और लगन से हम पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करते हुए सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हो सकते है। जरूरत है पुरुषार्थ करने की तो आइए आज से ही ये शुभ शुरुआत हो जाए। धर्म से मुरझायी हुई तस्वीर भी बदल सकती है, धर्म से सोई हुई तकदीर भी बदल सकती है। आत्मोत्थान की ताकत सिर्फ धर्म में ही है भाइयो, क्योंकि धर्म को पाकर आत्मा महावीर बन सकती है।

आधुनिक युग के भौतिकता की चकाचौंध में मैं मस्त व्यस्त थी। धर्म क्या है? संयम क्या है, इसका मुझे कोई बोध नहीं था। मुझे तो सिर्फ संसार की सुविधा कैसे मिले और मैं अपनी दुकान को कैसे ऊंचाई तक पहुचाऊं इसके स्वप्न सजा रही थी। व्यापार करते सोचती हाय धन, हाय धन व्यापार कैसे बढ़ाया जाए। इसके लिए क्या जाप करू, मंत्र तंत्र करू कि मुझे पैसा मिले, इज्जत मिले और मेरा व्यापार अच्छा चले।

जब गुरुवर्या का 1998 में अहमदनगर के जैन स्थानक में चातुर्मास हुआ, तो पहली बार मुझे साध्वी के संपर्क में जानाा हुआ। बार-बार धर्म स्थानक में जाना हुआ। इस चातुर्मास के दर यान ही महासती श्री कुमुदलताजी म.सा.के दर्शन किए। सुना था कि महासती जी ज्योतिष की जानकार हैं पत्रिका के माध्यम से भविष्य अच्छा बताती हैं। मैंने सोचा, मैं भी मेरे व्यापार के बारे में कुछ मंत्र जाप मांग लू तो मेरा व्यापार और अच्छा चलेगा। महासती श्री कुमुदलता म.सा.के पास जाकर बैठी, मानो उनका आभामंडल ऐसा लगा कि मैं कोई साक्षात देवी के दर्शन कर रही हूं। मुझे उन्होंने कुछ जाप मंत्र दिए, उससे मेरे व्यापार में और वृद्धि हुई। मैं रोज धर्म स्थानक जाकर सीखने की जिज्ञासा प्रकट की, उन्होंने कहा तू क्या धर्म करेगी, तुझसे धन नहीं छूटता। वह बात दिल को चुभ गई। दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं जिसे कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। यौवन अवस्था का जोश जगा, मैं धर्म करने लगी। रात्रि भोजन का त्याग, तपस्या करने लगी।

कुछ वर्ष पश्चात वैराग जगा मन कहने लगा गुरुवर्या का साथ मानो जीवन भर का साथी बन जाए तो कितना अच्छा होगा। फिर तो क्या मेरे जीवन की पराकाष्ठा थी, मुझे संयम लेना है। अब मेरे सामने समस्या थी परिवार से आज्ञा कैसे ली जाए, माता पिता की इकलौती बेटी दोनों भाईयों की लाडली बहन मानो पापा का तीसरा बेटा थी। पर देव गुरु धर्म के आशीर्वाद के साथ तप, त्याग करके वैराग्य की परीक्षा देकर आगे बढ़ी, सन 2007 में मुझे संयम रत्न मिला।

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