उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि जी

उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि जी

देश 1857 की प्रथम स्वतंत्रता क्रांति के शताब्दी वर्ष मनाने में लीन था। इसी वर्ष महाराष्ट्र के भुसावल जिले के घोड़ेगांव 7 अक्टूबर, 1975 को दगडूलाल देसरड़ा व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती चम्पाबाई देसरड़ा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी। दं​पत्ति हृष्ट—पुष्ट संतान को पाकर ईश्वर को धन्यवाद देने लगे। ईश्वर भक्ति में रमा यह परिवार पहले से धार्मिक था। धर्म ध्वजा की छांव में बालक के संस्कार प्रारंभ हुए। बालसुलभ क्रीड़ाओं से बालक माता—पिता के साथ परिवार का मन मोह रहा था। बालक ज्यों—ज्यों बड़ा हो रहा था, माता—पिता उसे मुनियों के धर्मोपदेश सुनाने ले जाने लगे। एक दिन मुनि का प्रवचन चल रहा था और माता—पिता बच्चे के साथ सुन रहे थे कि यकायक मां का ध्यान बालक की ओर गया। वह 3 वर्ष का बालक मुनि महाराज को निहारते हुए उनके अनमोल बोल को इतने ध्यान से सुन रहा था कि मानों वह उनके एक—एक शब्दों के अर्थ समझकर लीन हो। मां ने सोचा, बच्चों में कौतुहल होता है और यह बच्चा भी इसी वशीभूत मुनि के वचनों में ध्यान लगा रहा है। समय बीतता रहा। बालक थोड़ा और बड़ा हुआ, बोलने योग्य हुआ। अन्य बच्चों के जैसे उसका भी लालन पालन हो रहा था। पर, मां इक बात ध्यान दे रही थी कि बालक अन्य बच्चों की तरह नहीं है, वर्ण ईश्वर के सभी नाम उसे स्मरण हो चुके हैं और विलक्षण तरीके से वह ईश्वर नाम लेता रहता है। यह प्रथम संकेत था कि यह बालक साधारण नहीं है।

आचार्य प्रवीण ऋषि जी

आचार्य प्रवीण ऋषि जी

इस बीच बालक विद्यालय जाने लगा। लेकिन जब भी मुनियों की संगत मिलती तो यह बालक मानों आत्मिक आनंद व सुख प्रसन्नता व आनंद में डूब जाता। बालक ने 1973 में दसवीं की परीक्षा दी और माता—पिता से कह बैठा, अब मुझे धर्ममार्ग पर चलना है। यह सुनकर माता—पिता चिंतित हो गए और उसे आचार्य आनंद ऋषि के पास ले गए। आचार्य ने बालक की प्रज्ञा व धर्म की ओर रूझान देखा तो देखते रह गए और माता—पिता को सुझाव दिया कि इसे धर्म मार्ग में रत करें। आचार्य का धर्मादेश पाकर बालक को धर्म की सेवा के लिए देने का संकल्प लिया गया। 24 मार्च, 1974 को आचार्य आनंद ऋषि ने बालक को विधिवत् दीक्षा देकर धर्म की शरण में ले लिया। तत्पश्चात आचार्य के सानिध्य में बालक ने संयम पथ अंगीकार कर एक सार्थक जीवन जीने के पथ का अनुसरण किया। साधु जीवन में पदार्पण पर बालक का नया नाम प्रवीण रखा गया। साधु के रूप में प्रवीण जी ने दीक्षित जीवन में आगम शास्ञों का गहन अध्ययन किया। तत्पश्चात अन्य धर्मों के साहित्य विशेषकर गीता, रामायण, महाभारत, का भी पठन-पाठन किया। सभी जैन सूञों का अभ्यास कर, उत्तराध्यमन सूत्र को आत्मसात किया।

गवान की भक्ति में लीन होकर अब वे प्रवीण ऋषि बन चुके थे। आपके व्याख्यान में अमृतरूपी ज्ञान वर्षा होती रही है। भक्त मन्त्र मुग्ध होकर घंटों आपकी वाणी एकाग्र चित्त होकर सुनते रहते हैं। तीर्थंकरों के जन्म दिवस अथवा निर्वाण पर रात्रि के शांत वातावरण में जब आप एक मनोहारी लय में उन क्षेत्रों का भावनामय वर्णन करतें हैं तो व्यक्ति धर्म—अध्यात्म के उस स्वप्नलोक में पहुंच जाता है, जहां अनुपम पल का साक्षी बनने जैसा अनुभव होता है। पूज्य प्रवीण ॠषि का ध्येय युवा वर्ग में सुसंस्कारों का बीजारोपण करना, व्यसन मुक्त जीवन की कला सिखाना, उनमें नैतिक मूल्यों की स्थापना करना तथा आदर्श जीवन हेतु मार्गदर्शन देना है। ऋषि कहते हैं कि परिवार के सदस्यों के बीच प्रेम, समन्वय व शांति का वातावरण बना रहता है तो घर ही मंदिर बन जाता है। देशभर में विहार कर ऋषि परिवार और समाज को सद्मार्ग पर ले जाने एवं परिवार के प्रति कर्तव्य पूरा करने के साथ सामाजिक धर्म व राष्ट्र धर्म निभाने की प्रेरणा देते हैं।

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