चेन्नई. चिंतादरीपेट जैन स्थानक में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा आत्मा के भीतर मौजूद अनंत गुणों का प्रकटीकरण तभी संभव है जब साधक की अंतर्दृष्टि जागृत हो जाती है। अंतर्मुखी बना हुआ मनुष्य कांच के द्वारा बाहरी वस्तुओं को देखने के बजाय दर्पण के माध्यम से भीतर में झांकना शुरू कर देता है।
आत्मा और शरीर की भिन्नता को स्वीकार करने वाला ही भेदविज्ञान की स्थिति तक पहुंच पाता है। चेतन गुणयुक्त आत्मा का निज स्वभाव ऊपर की ओर उठना है, लेकिन कर्मों के भार के कारण जीव का पतन होता है। अज्ञान अवस्था में दूसरों के बारे में जानने की रुचि पैदा होती है लेकिन जिसके भीतर ज्ञान का प्रकाश प्रकट हो जाता है वो आत्मा को जानना शुरू कर देता है और जो एक आत्मा को जान लेता है वह सब कुछ जान लेता है।
आत्मा को देखा नहीं जा सकता, किंतु उसके अनुभूति की जा सकती है। शरीर के अंगों को सक्रिय बनाने में आत्मा का ही हाथ होता है। निष्प्राण शरीर के कानों को सुनाई नहीं देता, आंखों से दिखाई नहीं देता, नाक से गंध ग्रहण करने की शक्ति चली जाती है, मुँह से बोला और खाया नहीं जाता तथा हाथ एवं पैर चल-फिर नहीं पाते।
शरीर तो नश्वर है, किंतु आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है जो काटने से कट नहीं सकती जलाने से जल नहीं सकती और मारने से मर नहीं सकती। आत्मा की कीमत को पहचानते हुए उसके उत्थान हेतु सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
मुक्ति की मंजिल उसे ही प्राप्त होती है एवं शांति के सरसिज भी वहीं खिलते हैं जहाँ साधना की राह पकड़ी जाती है। जयकलश मुनि ने आत्मा के वास्ते, साधना के रास्ते, चल रे राही चल……. गीतिका प्रस्तुत की।
मुनिवृंद के सानिध्य में 30 जून रविवार को शांतिनाथ भगवान का जन्म एवं न निर्वाण कल्याणक मनाया जाएगा।