स्वर्ण संयम आराधक सरस वाणी भूषण सेवा शिरोमणि सेवा चक्रवर्ती परम पूज्य गुरुदेव श्री वीरेन्द्र मुनिजी महाराज*
एस .एस . जैन संघ ऊटी के जैन स्थानक में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म सा के प्रपौत्र शिष्य एवं तरुण तपस्वी श्री विमलमुनिजी म सा के सुशिष्य वीरेन्द्रमुनिजी महाराज ने आज धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि कर्मों की लीला अपरंपार है हंसते हंसते कर्म बांधते हैं तीर्थंकरों को भी कर्मों ने नहीं छोड़ा 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभु का वर्णन करते हुए कहा कि कमठ हर भव में पार्श्व प्रभु की आत्मा को कष्ट पहुंचाया प्राण हरण किये 10 भव तक उपसर्ग दिया , वैसे ही पहले तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान को भी 12 महीने आहार पानी नहीं मिला क्योंकि जब 10 कल्प वृक्षों से वस्तु मिलना कम हो गया तो ऋषभ देव उस समय प्रथम राजा बने थे, तो उन्होंने असि मसि और कृषि का ज्ञान दिया साथ ही पुरुषों की 72 कलाएं व स्त्रियों के 64 कलाएं सिखाई खेती का काम सिखाया तब बैल ही धान खाने लगे तो बैलों के मुंह पर छिंका लगवाया जिससे 12 घड़ी की अंतराय पड़ गई भगवान के जिससे 12 महीने तक आहार पानी नहीं मिला, तीसरे आरे के लोग भोले भाले होते थे उन्होंने छिंका तो लगा दिया पर वापस खोला नहीं जिसके कारण बैल भूखे प्यासे रहे भगवान के कहने पर उन्होंने कहा आपने बांधने का कहा था खोलने का कब कहा जरा विचार करें हम भी कभी-कभी बच्चों को नौकर को पशु को भूखा रखते हैं तो कितने कर्मों का भार हमारी आत्मा पर पड़ता है ऐसे कर्मों को काटने के लिये तत्वार्थ सूत्र के पहले अध्ययन का पहला सूत्र कहता है कि सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्राणी मोक्ष मार्ग : अर्थात सम्यकज्ञान सम्यक दर्शन सम्यक चारित्र मोक्ष मार्ग है इनको सम्यक प्रकार से पालन करने से आत्मा को शिव सुख का राज प्राप्त होता है अनंत अनंत चौबीसी हो गई परंतु अभी तक भी हमारे कर्म नहीं कटे क्योंकि जो भी धर्म करते हैं सिर्फ दिखावे के रूप में करते हैं।
मुनिश्री ने वीर स्तुति की गाथा बोलते हुवे कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी से जम्बू स्वामी ने पूछा कि हे अहो भगवन अन्य धर्म के लोग पूछते हैं कि तुम्हारे महावीर कैसे थे उनका ज्ञान दर्शन चारित्र तप कैसा था तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूं जंबू स्वामी से सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि प्रभु महावीर का ज्ञान और दर्शन चारित्र तप आलौकिक या अद्भुत था उनकी क्षमता करने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं था वीर प्रभु की क्षमा भी आलौकिक थी वे सूर्य जो कि हजार किरणों वाले से भी अधिक तेजस्वी थे वे चंद्रमा के समान शीतल भी थे।
वें स्वयं समता रस का पान करने वाले थे और संसार के समस्त जीवो को भी समता रस का पान करने के लिये उपदेश दिया था जितनी हमारी आत्मा समता रस में डुबकी लगायेगी उतने ही कर्मों की बेड़िया टूटेगी अतः सभी आत्माये समता रस का पान करके आत्मा को उज्जवल बनाये।