यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने कहा कि जैन धर्म का आचरण करने वाला जीव मोक्ष की प्रधानता को श्रृत करता है। जिसके लिए जीव अजीव का ज्ञान आवश्यक है सम्यगदृष्टि तत्व ज्ञान को प्राप्त कर छह काय का प्रतिपाल बन सकता है। संसार से तिरने के लिए तत्व को जानना जरूरी है।
वरना आस्त्रव को सवंर और बंध को ही मोक्ष मान लेगा यदि ऐसा कर लिया तो कर्मों की निर्जरा नही होगी। इसलिए भगवान कहते है जब तक संसार में जीने की कला नही आयेगी, तब तक वह कर्म निर्जरा नहीं होगी और कर्म बंध से नहीं बच पायेगा। भगवान कहते है कि संसार से तिरने के लिए आप संसार में रहो पर संसार अपने भीतर न रहे यदि जीव के भीतर संसार है तो वह संसार से तिर नही सकता।
इसलिए भगवान ने संसार से तिरने के लिए स्त्रियों के लिए 64 कला और पुरुषों के लिए 72 कला बताई दोनों का मूल दो ही है एक तो आजीविका और एक धर्म की। संसार में रहते हुए आसक्त मत बनो निवृत रहने की कोशिश करो। आजीविका के कार्यों में लगे रहोगे तो संसार में ही भ्रमण करोगे यदि धर्म के कार्यों में लगोगे तो एक न एक दिन अवश्यक मुक्त हो जाओगे। शरीर के प्रति आसक्ति भ्रम में रहना है और क्षणिक सुख में लगे रहते है। इसलिए जीव अजीव का भेद जानने से ही आत्मा के शाश्वत होने का भान होगा।
संयम का पालन करने के लिए सबसे पहले विनय आवश्यक है। जिसकी आत्मा सरल होती है वह आज्ञा को सरलता से मान लेता है। और गुरु की आज्ञा का बड़ों की आज्ञा का पालन कर लेता है। बड़ों की व गुरु की आज्ञा पालन न करने वाला क्लेश उत्पन्न का कारण बनता है। इसलिए भगवान कहते है आज्ञा में धर्म मानो। जिससे परिवार व समाज में शान्ति बनी रहती है।
कितना ही उच्च ज्ञान हो पर यदि अभ्यास नहीं किया तो अनुभव की कमी रहती है। जो अनुभवी व्यक्ति के पास जा कर यदि अभ्यास करें तो ही दक्षता आती है और किया गया कार्य सफल होता है। अच्छी गृहणी बनने के लिये घर में ही छोटी मोटी बीमारियों का इलाज घरेलू नुस्खों से कर देती थी जिससे बड़ी बीमारिया जल्दी ठीक हो जाती। पर आज छोटी बीमारियों के लिए
अपनी सास के छत्र छाया में रह कर अभ्यास करना जरूरी है। यदि अभ्यास नही किया तो एक सास की बजाय संसार में अनेक सास बन मिलेंगी और बाते सुननी पड़ती है। पहले अनुभवी डॉक्टर के पास दौड़ते है डॉक्टर की दवाइयों से एक्शन कम रियेक्सन ज्यादा होता है। और बड़ी 2 बीमारियों घेर लेती है।
जो हमे ज्ञान देते है उन बड़ों का, गुरु का उपकार मानना चाहिए। इसलिए लड़के-लड़कियों को पढ़ाई के साथ-2 घर-व्यापार आदि के कार्य का ज्ञान देना भी जरूरी है। जिससे उनको जीवन विवाह के बाद सुख शान्ति भरा हो।
भगवान की आज्ञा का पालन करना ही धर्म है और वर्तमान में तीर्थकर उपस्थित नहीं है इसलिए गुरु की आज्ञा पालन ही धर्म है क्योंकि आज्ञा मानने से ही धर्म ठहरता है। धर्मस्थान में प्रवेश करते ही पहले विधिवत वंदन करना चाहिए जघन्य वन्दन धर्मस्थान में नही करे क्योंकि भावपूर्वक वन्दन करने से उच्च गोत्र का बन्ध होता है नीच गोत्र का क्षय होता है।