चारों गति में पैदा होने के कारणों का विवेचन करते हुए “धर्म का टिफिन” तैयार करने की दी प्रेरणा
सुनील जी सिंघी, सदस्य, अल्पसंख्यक आयोग, भारत सरकार ने किये दर्शन, पाया पाथेय
माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के दसवें श्लोक का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने फरमाया कि जैन धर्म में पानी को भी जीव माना गया हैं| जैसे हम सजीव है, पानी भी सजीव होता है, जब तक शस्त्र परिणत न हो जाए सामान्यतया| कच्चे पानी की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं| पानी में पैदा हुआ जीव, हो सकता है पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय या त्रसकाय में से, कहीं से भी, आया हो सकता है और मर कर वापस इन किसी भी छ: जीवनिकायों में जा सकता हैं, जैसा उसका बन्धन होगा| यही नियम पृथ्वीकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय के लिए है| सम्पूर्णतया देखे तो त्रसकाय के जीव भी छह ही जीवनिकायों में फिर पैदा हो सकते हैं| यह एक पुनर्जन्म का सिद्धांत हैं, कि कौन मर कर, कहा जा सकता हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि अगली गति का जो बन्धन होता है, यह नियम हैं, जिस लेश्या में यहां जीवन की समाप्ति होती हैं, उसी लेश्या के परिणामों में, उसी लेश्या में, आगे उत्पत्ति हो जाती हैं|त्रसकाय के जो जीव हैं, उनके भी कई नियम हैं| देवता मर करके, आयुष्य पूर्ण करके, वापस न देव बन सकता हैं, न सीधा नरक में पैदा हो सकता है| नारकीय जीव भी उसी तरह आयुष्य पूर्ण कर पुन: नरक में या सीधे देव गति में नहीं जा सकते| ये दोनों गति के जीव या तो मनुष्य या फिर तिर्यंच गति में ही पैदा हो सकते हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि अगली गति का सम्बन्ध हमारे कर्मों से जुड़ा हुआ है, कि किस प्रकार का कर्म हम करते हैं, एक आदमी खूब आरंभ करने वाला हैं, महाआरंभ करने वाला हैं, जीव हिंसा और महापरिग्रह, मोह मूर्च्छा की चेतना वाला है, पंचेन्द्रिय की हिंसा, मांसाहार सेवन करने वाला हैं, ऐसे कारण हैं, तो जिनसे आदमी मर करके नरक गति में पैदा हो सकता हैं| तो आदमी को हिंसा से अपने आप को बचाने का प्रयास करना चाहिए, जितना हिंसा से बच सके| गृहस्थ पूर्णतया हिंसा से बच नहीं सकता, पर ज्यादा हिंसा से बचे| आदमी या बड़े पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा न हो| घर में चूहे हैं, जहां तक हो सके, वह मारे न जाए, ऐसे पंचेन्द्रिय प्राणियों को जानबूझकर मारना नहीं चाहिए, तो यह हिंसा से आदमी बचाव रखें| आदमी को मांसाहार से बचना चाहिए मांसाहार के पीछे भी पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा निहित हैं, हो सकती हैं| आदमी की उम्र आ जाए| 60-70 पार हो जाए, फिर यह त्याग कर दे कि मेरे स्वामित्व में इतने से ज्यादा परिग्रह न रखू, तो यह नरक गति से बचने के उपाय हैं|

आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि एक आदमी हैं, जो माया, गूडमाया, झूठ बोलना, इसमें ज्यादा रत रहता है, माया और मूर्च्छा, झूठ-कपट, यह वृति तिर्यंच गति में ले जाने का काम करती हैं| तो तिर्यंच गति से बचना है तो आदमी को सरलता का जीवन जीना चाहिए, झूठ से, छल-कपट से, जितना बच सके, बचना चाहिए| आदमी जितना सरल, ऋजु, ईमानदार होगा, तो मानो तिर्यंच गति के ताला लग जायेगा|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि जो आदमी ऋज, सरल, भद्र, विनीत हैं, इर्ष्या नहीं करता है और विशेष धर्म ध्यान भी नहीं करता है, त्याग तपस्या भी नहीं करता है, ऐसा भला आदमी हैं, तो वह संभव है, वह मरकर के वापस मनुष्य गति में पैदा हो जाता हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि जिसके जीवन में त्याग-तपस्या हैं, संयम है, जैसे कोई साधु बनकर साधुपन पाल रहा हैं, रागयुक्त संयम है, तो साधु आयुष्य पुरा करके देव गति में पैदा होगा| साधु विधानतया देव गति में पैदा होते हैं| श्रावक जो संयमासंयम की अवस्था में आयुष्य बंध करता है, तो श्रावक की भी गति, देव गति होती हैं|
कोई न साधु बना, न श्रावक बना, न सम्यक्त्वी बना, फिर भी तपस्या करता है, साधना करता है, ऐसा मिथ्यात्वी हैं, बालतपस्वी है, वह भी मर कर देव गति में पैदा हो सकता है|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि जो अभव्य जीव, जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा, घोर मिथ्यात्वी जीव, कभी सम्यक्त्वी नहीं बनेगा, ऐसा अभव्य जीव हैं, वह भी तपस्या, साधना कर लेता हैं, वह भी नव ग्रेहवेयक देवलोक तक, में पैदा हो सकता है| अकाम निर्जरा से भी मनुष्य देव गति में पैदा हो सकता है| सारांश की बात यह है कि जितने हमारे ज्यादा अच्छे परिणाम रहेंगे, अच्छे अध्वव्साय होंगे, भलापन होगा, त्याग तपस्या होगी, तो अगली गति अच्छी हो सकेगी, खराब परिणाम है, तो अगली गति खराब होगी|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जिसके जीवन में तपोगुण प्रधान हैं, तपस्या करता है| अनाहार कितने मासखमण, अठाई आदि-आदि आदमी तपस्या करता है, स्वाध्याय आदि तप के प्रकार में संलग्न रहता है, ऐसी तपोगुण प्रधानता हैं, वह सुगति दिलाने वाला होता हैं| जो ऋजुमति हैं, छल-कपट नहीं करता, शांति, क्षमा धारण करने वाला हैं, संयम की साधना करने वाला है, इस तरह के जीवन को जीने वाला व्यक्ति अच्छी गति में पैदा हो सकता है|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आदमी को आगे का भी ध्यान रखना चाहिए| यहां मानो जीवन ठीक चल रहा है, भौतिक साधन प्राप्त हैं, परिवार भी ठीक है, पैसा हैं, सब आनन्द हैं, आदमी यह सोचे, मानो यह तो पिछली पुण्याई भोग रहा हैं|

धर्म का टिफिन रखे तैयार
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आगे के लिए धर्म का टिफिन तैयार हो रहा हैं कि नहीं, संयम, तपस्या की साधना मेरी कैसी है, आयुष्य का कोई भरोसा नहीं, अत: आदमी यह सोचे की मेरे पास धर्म का टिफिन रहे| आगे की यात्रा में धर्म के टिफिन के लिए आदमी को प्रतिदिन नमस्कार महामंत्र की माला फेरनी चाहिए, प्रतिदिन नवकारसी, सामायिक, चारित्रात्माओं की सेवा उपासना, रात्रि चौविहार या तिविहार भोजन का त्याग, लहसूण, प्याज आदि जमीकन्द सेवन का त्याग करना चाहिए| व्यवहार में किसी को गाली नहीं देना, गुस्सा नहीं करना, कटू वचन नहीं बोलना, दुकान में छल-कपट नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, ईमानदारी रखना, चोरी नहीं करना, मेरी वस्तु नहीं है, मैं चोरी के रूप में नहीं लुंगा, इस तरह हम धर्म के टिफिन में सामग्री डाल सकते हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जितना धार्मिकता, शुद्धता का भाव रखेंगे, हमारी आत्मा शुद्ध रह सकेगी| अगर हम राग, द्वेष, चोरी, झूठ, कपट आदि आदि में परिणाम कर लेंगे, वैसा काम करेंगे तो हमारी आत्मा के साथ पाप का भारा बंध सकता हैं| हम जीतना संभव हो सके, पापों से बचे और धर्म के रास्ते पर चलने का प्रयास करें|
इस अवसर पर श्री सुनील सिंघी सदस्य, अल्पसंख्यक आयोग, भारत सरकार ने आचार्य श्री के दर्शन कर पावन प्रेरणा पाथेय पाया| चातुर्मास व्यवस्था समिति की ओर से श्री सुनील सिंघी का स्वागत किया गया| साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने साधकों को साधना में संलग्न रहने की प्रेरणा दी| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति