किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी के शिष्य गणिवर्य समर्पणप्रभ विजयजी ने प्रवचन में दशवैकालिक सूत्र की विवेचना करते हुए कहा कि दश यानी इसमें दस विभाग है और वैकालिक यानी असज्झायकाल या अकाल या जब हम स्वाध्याय नहीं कर सकते हैं, ऐसी स्थिति में इस ग्रंथ का वांचन नहीं कर सकते हैं। इसकी रचना स्वयंभव सूरीजी ने की। स्वयंभव सूरीजी ब्राह्मण कुल के थे। उन्होंने कहा साधु जीवन में कैसे मोक्षमय बने। मन, इंद्रियों के विकारों पर कैसे विजय प्राप्त करे, इसका वर्णन इस सूत्र में हुआ है। उन्होंने कहा हमें अपनी संस्कृति, धर्म पर गौरान्वित महसूस करना चाहिए। संसार में रहते हुए अल्प हिंसा वाली वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। नियम और नियंत्रण के माध्यम से अति जीवहिंसा से बचा जा सकता है। सुपात्रदान का लाभ भी अतिसंयोग और पुण्य से प्राप्त होता है।
गणिवर्य ने बताया कि दशवैकालिक सूत्र में दस अध्ययन बताए गए हैं ध्रुमपुष्पिका अध्ययन, श्रामन्य पूर्वक अध्ययन, क्षुल्ल्काचार कथा, छःजीवनीकाय अध्ययन, पिंडेशना अध्ययन, नवाचार, वाक्य शुद्धि, आचार प्रनिधि, विनय समाधि अध्ययन और सभिक्षु अध्ययन। उन्होंने कहा जैसे पुष्प रंगीन व सुगंधित होते हैं। भंवरे उसके ऊपर आकर बैठते हैं और रस चूसकर अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। वैसे ही साधु भी आहार इस तरह से लेता है कि गृहस्थ को कष्ट नहीं पहुंचे, आराधना में विध्न न आए। उन्होंने कहा श्रावकों को भी गोचरी संबंधी सावधानियां रखनी चाहिए।
साधु का जीवन काम, मोह, राग- द्वेष, भोग आदि कषायों को दूर रखकर विनयपूर्वक होना चाहिए। रात्रि भोजन का त्याग, स्नान आदि नहीं करनी चाहिए, वैसे 52 बिंदुओं का वर्णन इसमें हुआ है। साधु को 42 दोषों का निवारण करके गोचरी ग्रहण करनी चाहिए। साधु को सोच समझकर, विवेकपूर्ण बोलना चाहिए, मधुर भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। उनके शब्दों में विवेक झलकता रहना चाहिए। उन्होंने कहा मन- वचन- काया से किसी जीव को पीड़ा न हो, ऐसा उत्कृष्ट जीवन साधु का होना चाहिए। साधु को गुरु का उचित सम्मान करना चाहिए। साधु का मन पवित्र होना चाहिए। साधु में सरलता, विनय, मैत्रीभाव, अभिमानमुक्त आदि गुण होने चाहिए।