कुछ लोग अनुकूलता के होते हुए भी धर्म नहीं करते है। और कई लोग प्रतिकूलता आने पर भी धर्म को छोड़ते नहीं है। हर व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुसार धर्म करता है। आत्मा में पड़े संस्कारों को कर्मसत्ता अगले भव में पूर्ण करने की क्षमता देती है। सच्च धर्म तभी होता है जब हम धर्म का सम्यक ज्ञान हमारे जीवन में उतारें।
यह बात किलपॉक में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कही। उन्होंने श्रावक के पर्युषण के ग्यारह कर्तव्य संघ पूजा, स्वामिवत्सल्य यानी साधर्मिक भक्ति, तीर्थ यात्रा, देवद्रव्य वृद्धि का ज्ञान, स्नात्र पूजन, महा पूजा, रात्रि जागरण, श्रुत पूजा, उजमणा, तीर्थ प्रभावना और आलोचना बताई।
उन्होंने बताया कि एक साधर्मिक की भक्ति करने से जो अमारि का बदलाव उसमें आरंभ होता है उसका फल आपको भी मिलेगा। चैत्य परिपाटी कुछ दूर करने से छःरी पालित तीर्थ यात्रा का अनुभव मिलता है। अपने गुरु साधु साध्वी भगवंत के पास भी वर्ष में एक बार जरूर जाकर आलोचना व मार्गदर्शन ग्रहण करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि देवद्रव्य की वृद्धि न्याय संपन्नता से होनी चाहिए। देवद्रव्य की जहां पर आवश्यकता है वहां विनियोग करने की आवश्यकता है। अन्य तरह से उपेक्षा का दोषी नहीं बनना है। धन के ममत्व से परिग्रह का दोष बनता है जैसे मम्मण सेठ को भी नरक का द्वार दिखा दिया। परधन पत्थर के समान है तो परमात्मा का धन पारे के समान बताया गया है। देव द्रव्य पर ममत्व रख संग्रह करने से उसकी उपेक्षा का पाप संघ को लगता है। जहां तक संभव हो सके, देव द्रव्य का उपयोग प्राचीन मंदिरों के जीर्णोद्धार में करना चाहिए।
हमारा कर्तव्य बनता है कि देवद्रव्य का धन तुरंत चुकाना चाहिए। समय का अंतराल लेने से पांच भयस्थान का दोष लगता है आयुष्य का भय, समय के अंतराल के कारण भाव बदलने का भय, यादशक्ति कमजोर होने का भय, लक्ष्मी चंचल है तो उसके रुठने का भय। वैयावच्च आदि साधारण खाते में जरुरत का भय। इसलिए हो सके तो संघ को ऐसी योजना बनानी चाहिए कि साधारण खाते में पर्याप्त राशि आए। इसका आचार्य भगवंत से ज्ञान ले सकते हैं।