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समाज के बगैर व्यक्ति का अस्तित्व उतना ही है जितना किसी पेड़ से पृथक हुए पत्ते का हैं: देवेंद्रसागरसूरि

समाज के बगैर व्यक्ति का अस्तित्व उतना ही है जितना किसी पेड़ से पृथक हुए पत्ते का हैं: देवेंद्रसागरसूरि

मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है इसका अर्थ है मानव समाज के लिए है तथा समाज मानव के लिए हैं. दोनों का अस्तित्व पूरी तरह से एक दूसरे पर आश्रित है पूरक हैं.

उपरोक्त बातें श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन देते हुए कही, वे आगे बोले कि मानव ने स्व भावना का त्याग कर पर भावना को आधार बनाकर समाज बनाया तो समाज ने भी मानव के सर्वांगीण विकास में अहम भूमिका अदा की. इस तरह समाज व परिवार एक दूसरे से अभिन्न बन गये. किसी राष्ट्र या वर्तमान के देशों का स्वरूप भी इसी तरह निर्मित हुआ, व्यक्ति से समाज, समाज से नगर और नगर से छोटे छोटे राज्य और राष्ट्र का निर्माण हुआ.

समाज के बगैर व्यक्ति का अस्तित्व उतना ही है जितना किसी पेड़ से पृथक हुए पत्ते का हैं. व्यक्ति अपना चहुमुखी विकास समाज में रहकर, उसके संसाधनो का उपयोग करके, सुविधाओं का उपभोग करके ही कर सकता हैं. समाज निर्माण के पीछे मनुष्य के एकाकीपन एवं असुरक्षा के भाव रहे हैं. आदि मानव जब बिखरे स्वरूप में अलग अलग रहता था तो जंगली जानवरों से उसे जीवन का खतरा था, अतः वह अपने परिवार और समाज के साथ मिलकर रहने लगा. प्राचीन भारत के समाज संयुक्त परिवारों से बने थे, जो आज एकाकी हो गये हैं. व्यक्ति समाज में गौण था उसे अपने समस्त कार्य समाज द्वारा तय परिधि के भीतर ही करना होता था. मर्यादा, संस्कार तथा कर्तव्यों का निर्वहन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था.

मगर आज परिस्थतियाँ बिलकुल उल्ट हो गई हैं. अब व्यक्ति समाज से अधिक स्वयं को तरजीह देने लगा हैं वह समाज के कर्तव्यो के स्थान पर स्वयं या परिवार के कर्तव्यों को सर्वोपरि मानने लगा हैं. मनुष्य की आत्मकेंद्रितता की भावना के चलते उसके समाज के प्रति दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया हैं. उसे यह एहसास नहीं रहा है कि मनुष्य जीवन का आधार समाज ही हैं. मनुष्य भले ही अपने प्रयत्नों से भौतिक साधन जुटाता है, मगर उसमें समाज का बड़ा सहयोग रहता है जिसके बिना वह उन्नति नहीं कर सकता हैं. व्यक्ति जो कुछ पाता है समाज से ही पाता हैं.

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