चेन्नई. बुधवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने कहा कि सदैव स्वयं को शुभ समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में लगाएं रखें। किसी कार्य को करने की मन में इच्छा करना, उस कार्य को करने के लिए आवश्यक सामग्री इक_ा करना तथा उस कार्य की शुरुआत करना समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ है। यह शुभ कार्मों में भी हो सकते हैं और अशुभ भी।
इससे अपने मन की पूरी शक्ति को उसी कार्य करने में लगा दिया जाता है। जिस प्रकार अभयकुमार अपनी मां की दोहद इच्छा पूरी करने के लिए तप करता है और देव को आना ही पड़ता है। ऐसा मन का सामथ्र्य है। मन से हिंसा भी ऐसे हो सकती है और पुण्य भी हो सकता है।
आगम में दिए गए सूत्रों का हमें केवल जानकारी और ज्ञान बढ़ाने के लिए ही नहीं व्यवहारिक जीवन में भी प्रयोग करने चाहिए। रास्ते देखने के लिए नहीं चलने के बनाए जाते हैं और जो उन्हें देखता ही रहता है वह कभी मंजिल पर नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार परमात्मा की देशना मात्र सुनने के लिए ही नहीं अपने जीवन में उतारने के लिए है। उनकी वाणी में ऐसे ऐसे सूत्र और विज्ञान की सूक्ष्म जानकारियां तथा छोटी–से–छोटी समस्याओं का समाधान हैं जो हर काल, परिस्थिति और स्थान पर उपयोगी हैं। अपनी मानसिकता को बदलकर गहरी आस्था का उपयोग किया जा सकता है।
परमात्मा ने कहा है कि समाचारी सभी समस्याओं और दु:खों का समाधान है। यह साधु, गृहस्थ, संघीय जीवन सभी के लिए जीवन को सही तरीके से जीने की कला है। जो असमाचारी होता है उसके जीवन में समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। समाचारी का पहला सूत्र है कि स्वजनों की आज्ञा के बिना घर से बाहर कदम न रखें। इससे व्यक्ति अनेक समस्याओं से बच जाता है। बचपन से यदि यह आदत बच्चों में अनिवार्य हो जाए तो वह कभी गलत रास्ते पर नहीं जाएगा। अपने स्वजनों को इनका प्रैक्टिकल करना जरूर सिखाएं। दूसरी समाचारी है–दुखों का समाधान। बाहर की नकारात्मकताएं घर के अन्दर लेकर न आएं।
पहले बाहर कुछ रुकें और पांवों को साफ करके ही अन्दर आएं। इससे घर को घर ही बनाए रखकर गृहस्थ धर्मपालन ठीक से कर पाएंगे। तीसरी है– किसी कार्य को करने से पहले वरिष्ठों की अनुमति लेकर ही किसी कार्य को करें। साधुओं के लिए तो अपनी दैनिक कार्यों को पूछकर करने की अनिवार्यता है। यह परंपरा घर में आ जाए तो जिस मनमानी करने की समस्या से सभी परेशान होते हैं वह नहीं होगी। चौथी है पडिपूच्छना– किसी काम की आज्ञा तुरंत न मिली तो कुछ समय बाद उसे पुन: विनयपूर्वक पूछना। माहौल बदलने के बाद अपनी बात को सही तरीके से रखेंगे तो उसकी आज्ञा मिल सकती है। पांचवीं है छलना– हमें कुछ ज्ञान या वस्तु प्राप्त हुआ और हमने उस पर अपना ही अधिकार मानते हुए उसे स्वजनों से न छिपाएं। हमारा घर, परिवार, संघ सभी का विकास हो इसलिए उसे सब स्वजनों को जरूर बताना चाहिए। छठा है– इच्छा कारेणं।
किसी से कोई कार्य करवाना या किसी का स्वयं सहयोग करने से पहले उसकी इच्छा जानकर, उसकी अनुमति लेकर ही सहयोग लें या दें। इससे बड़ों का बड़प्पन और स्वाभिमानी का स्वाभिमान भी सुरक्षित रहेगा। सातवीं है– मिच्छाकारी। छद्मस्थ से गलती होती है इसलिए अपनी गलती को कभी भी छिपाने और उसका समर्थन करने का प्रयास न करें, उसे स्वीकार करें। आठवीं है– बड़ों ने कुछ कहा तो उनसे बहस न करें, तुरन्त स्वीकार कर लें और आपको नहीं ठीक लगे तो कुछ समय बाद निवेदन करें। नवीं है– अभ्युथा। कोई बड़ा आए तो उसका अभिवादन जरूर करें, छोटा आए तो उसे भी कम से कम मुस्कान जरूर दें, केवल स्वयं में ही न खोए रहें। दसवीं है– कोसम्पदा। घर से बाहर अन्यत्र जाना हो या रहना हो तो अपने घर और परिवार के संस्कार कभी न छोड़ें, अपने स्वजनों की अनुमति लेकर जाएं।
परमात्मा कहते हैं कि इन दसों समाचारी का जहां प्रयोग नहीं होता है वहां बहुत सारे संकट आते रहते हैं। ऐसे असमाचारी व्यक्तियों को दुष्ट बैल या खलुम्भ कहते हैं, जो न तो स्वयं और न अपने स्वामी को मंजिल पर पहुंचने देते हैं और न ही अपनी गाड़ी को सुरक्षित रहने देते हैं। ऐसे व्यक्तियों से यदि पाला पड़ जाए तो समूह से उसे पृथक्क कर देना ही चाहिए।
यदि पूरा समूह ही ऐसा हो जाए और आत्मसाधना में बाधाएं उत्पन्न करने लगे तो उसका पूरी तरह से त्याग करनाा चािहए, इसी में साधु का कल्याण है। ऐसा व्यक्ति दुष्ट और गली के गधे के समान बनकर जीते हैं। वे ऐसा रूप बनाते हैं कि बाहर से भोले और अन्दर से क्रोधी और अहंकारी होते हैं। वे हर बात में से कुछ ना कुछ एक्सक्युज निकालते हैं, किसी की सुनते नहीं है और तत्काल कुछ भी तर्क–कुतर्क करते हैं। ऐसे व्यक्ति संघ में हो तो उसे चला नहीं पाते। दूसरे बिगड़े इससे पहले उनका त्याग करना ही उचित है।
तीन बातें होनी जरूरी है। मोक्ष, मार्ग और गति। अपने जीवन का लक्ष्य, उसे प्राप्त करने का रास्ता और उसके लिए प्रयत्नशील होना जरूरी है। यह संसार समस्याओं से व्याकुल है। जहां पर ज्ञान, श्रद्धा, चरित्र और तप है वहीं पर समस्याओं का समाधान होता है। सुधर्मास्वामी कहते हैं कि परमात्मा के ज्ञान, श्रद्धा, चरित्र और तप को समझें। उनके धीरज को जानें। हमारा जीवन इस संसार की भांति ही नौ तत्त्वों से चलता है। जीव चेतन और शरीर अजीव के गठबंधन में आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा के तत्त्व चलते हैं। जिस प्रकार मकान अजीव और रहनेवाले सदस्य जीव है।
ये सभी मिलकर यदि शुभ का आस्रव हो तो पुण्य और अशुभ का आस्रव हो तो पाप का बंध होता है। आस्रव में ही बंध की संभावना होती है और यदि आस्रव होते ही उसे समाप्त कर दिया जाए या शीघ्र भावना बदलकर समय रहते संभल जाएं और बुरी बातों को त्याग दें तो अशुभ बंध से बचा जा सकता है। बुरी बातों को अपने घर और स्वजनों में आने ही देने का पूर्व प्रबंध करना संवर है। यह घर की चहारदीवारी के समान है। संवर के बाद निर्जरा होनी चाहिए। किसी को भी भीतर प्रवेश करने से पूर्व द्वार पर रोकने को निर्जरा कहा गया है। इन नौ तत्त्वों को जिसने सही समझ लिया उसका जीवन सुंदर हो जाता है।
यह पुद्गल से बना है और आत्मा चेतन से। ये परस्पर विरोधी होकर भी एक बेड़ी में जकड़े हुए हैं। इस शरीर का पालन आत्मीय समझकर न करें। इस ज्ञान को सामान्य तरीके से स्वत: समझने वाला व्यक्ति निसर्गरूचि है और जिसे यह समझाने से समझ में आ जाए वह उपदेशरूचि कहा गया है। बिना श्रद्धा के ज्ञान नहीं होता, सत्य की प्राप्ति तथ्यों से नहीं श्रद्धा से होती है। अपनी आत्मा के सर्वसामयथ्र्य को जानने और स्वीकार करने वाला भवी जीव है।