चेन्नई. नंगनल्लूर जैन स्थानक में विराजित जय धुरंधर मुनि ने कहा हर आत्मा में अनंत सुख मौजूद रहता है लेकिन व्यक्ति पुद्गलों में सुख ढूंढ़ता है। पुद्गलानंदी नहीं आत्मानंदी बनना चाहिए। जिसे आत्मिक सुख का अहसास हो जाता है उसे बाहर से कुछ लेना देना नहीं रहता, वह अपने आप में ही मस्त रहता है ।
सुख भोग में नहीं त्याग में है। पुदगलों से प्राप्त होने वाला सुख मात्र सुखाभास होता है। कोई भी वस्तु किसी को भी हमेशा सुख नहीं दे सकती। एक ही वस्तु से परिस्थिति के अनुसार सुख अथवा दुख दोनों प्राप्त हो सकता है। मन यदि अप्रसन्न है तो सुख के साधन भी दुख के कारण बन जाते हैं। जिस प्रकार रेत को पीसने से तेल नहीं मिल सकता, उसी प्रकार पुद्गलों से कभी सुख नहीं मिल सकता।
हर व्यक्ति चाहता है सुख हमेशा रहे पर वह तो सिर्फ सिद्ध के ही होता है। सच्चा सुख भीतर में है बाहर नहीं। सुख कोई खरीदने या बेचने की चीज नहीं है। जितनी भी सुविधाएं होती हंै वे दुविधा का कारण बनती है।
वस्तुत: सुख धन से नहीं अपितु मन से सुख मिलता है। सांसारिक सुख क्षणिक होते हैं जबकि आध्यात्मिक सुख शाश्वत एवं अव्याबाध होता है। उस आनंद की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को धर्म आराधना करते हुए सच्चे सुख के राजमार्ग पर कदम बढ़ाना होगा।
संयम में ही सच्चा आनंद मिलता है। सुख का अर्थ दुख का अभाव नहीं अपितु आनंद की अनुभूति है। मुनि गण यहां से विहार कर आलंदूर जैन स्थानक पधारेंगे।