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ज्ञान वाणी

धर्मकार्य पूर्ण आस्था और श्रद्धा के भावों से करने वाला ही मेधावी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

धर्मकार्य पूर्ण आस्था और श्रद्धा के भावों से करने वाला ही मेधावी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि
चेन्नई. सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रैक्टिल लाइफ सत्र में सामायिक की आराधना के सूत्र बताए। उन्होंने कहा कि विराधना के दस रास्ते और आराधना के दस रास्ते होते हैं। विराधना के दस सूत्रों में से यदि एक को भी रोक दें तो बाकी नौ अपने आप रूक जाएंगे।
जब किसी से गलत व्यवहार हो जाए तो उससे क्षमा मांग लें, क्षमापना से अभिहया के चक्र को रोक सकते हैं। क्षमापना से यह विराधना नहीं होगी। अन्तर मन में इच्छा तो रहती है सुलह की लेकर करते नहीं है, तो सामने वाला भी नहीं करता है और इस तरह यह अभिहया की विराधना रूकती नहीं है।
जब हम वास्तविकता को स्वीकारते नहीं हैं तब दूसरों के साथ स्वयं की भी वत्तिया करते हैं। यह जीवन में ऐसा तनाव लाती है जिससे पापों का बंध करते ही जाते हैं। परमात्मा कहते हैं कि यह छिपाने की आदत न रखें। धर्म कहता है कि वास्तविकता को न छिपाएं, सत्य को उजागर करें। स्वयं के साथ दूसरों की अच्छाइयों को भी उजागर करें। जीवन में हमेशा सीधा, सरल और पारदर्शी बनें।
जब जीवन में मजबूरी की ऐसी स्थिति हो जाए कि किसी कारण से जो कर सकते हैं वह भी नहीं कर पाते हैं तो वैसा ही उस व्यक्ति का प्रभाव, ओरा या लेसिया बन जाता है।
संघाइया का मतलब है कि हम परस्पर विरोधि या बेमेल का आचार, विचार, ज्ञान, धर्म सभी का संग्रहण करते रहते हैं। विपरीत प्रकृति ग्रहण करते रहते हैं और अपने अन्तर में उसकी संघाइया करते रहेंगे तो उसके दुष्परिणाम भी हमें भुगतने पड़ते हैं। संघाइया से बीमारियां बढ़ती रहती है। जीवन में अगर शांति चाहिए तो इससे बचें।
जिस मानसिकता में जीवन में दु:ख और परेशानी आती है इसे कैसे बदलना चाहिए इसकी आचारांग सूत्र में विवेचना की गई है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि कोई वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति आपको अच्छी नहीं लग रही, उस वस्तु को छोडऩे की बजाए अपने उस बुरे भाव को जो त्यागता है, वही बुद्धिमान है। अपने प्रतिकूल लगनेवाली परिस्थितियों से जो दूर भागता है वह संसारी है और जो उन्हें बदलने की बजाय स्वयं की मानसिकता को बदल ले वह मेधावी है। अपने मन के प्रतिकूल या किसी को नापसंद करने की अनुभूति धीरे-धीरे नफरत और दुश्मनी में बदलती जाती है। इसे शीघ्र बदलें।
परमात्मा कहते हैं कि जो इस भावना से बाहर निकल जाए तो वह एक पल में मुक्त हो जाता है। उसकी अन्तरात्मा से द्वेष और उसका मूल कारण निकल जाता है।
मनुष्य इस ईष्र्या और नफरत की भावना से ग्रसित होकर दूसरों से ज्यादा स्वयं पर जुल्म करता है, स्वयं ही द्वेष की आग में जलता रहता है, ऐसा व्यक्ति दूसरों के मन में द्वेष की आग को बुझा नहीं सकता। मन की इस भावना के कारण शायद बाहरी व्यवहार न बिगड़े लेकिन स्वयं के लिए तो जन्म-जन्म का बंध हो ही जाता है। व्यक्ति धर्म कार्य, तप, जप, त्याग, आराधना करते हुए भी यदि बिना आस्था और श्रद्धा के करता है तो निर्जरा की जगह वह पापों का बंध कर लेता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान नहीं है। इससे मात्र बाहरी दिखावा और पाखण्ड जन्मता है और जो पाखण्ड करता है वह स्वयं खण्ड-खण्ड हो जाता है।
कई जीव नरक में भी शांति से रहते हैं कि वे नरक से आकर भी मोक्ष में जाते हैं और कई जीव स्वर्ग में भी अशांति से रहते हैं कि पृथ्वीकाय बनते हैं। परमात्मा ऐसी भावनाओं से बाहर निकलने का कहते हैं। आत्मा की अनुभूति करनेवाला ही श्रद्धा और संयम की अनुभूति करता है। मोक्ष प्राप्ति की भावना जिसके मन में हो उसके लिए सुख, सुविधा, साधन और सांसारिकता तुच्छ हो जाती है, वह उनसे बाहर निकलने का पूरा प्रयास करता है।
श्रेणिक चरित्र में बताया कि अभयकुमार चंद्रप्रद्युत से छुटकर अपनी चुनौती के अनुसार एक व्यक्ति को धन देकर नकली राजा चंद्रप्रद्युत बनाता है और उसे रोज बाजार में से पिटते हुए लेकर जाता है और लोग समझते हैं कि यह तो पागल है। एक दिन इसी प्रकार चंद्रप्रद्युत को छल से बांधकर अभयकुमार उसे भी वैसे ही भरे बाजार में से पिटते हुए लेकर जाता है। वह चिल्लाता है और लोग देखते रहते हैं, वे कुछ नहीं करते। अभयकुमार उसे श्रेणिक के पास लेकर जाता है और वहां श्रेणिक उसे मुक्त करके ससम्मान भेज देता है।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि कुछ जीव पुण्य लेकर आते हैं और पुण्य को बढ़ाते हैं, कुछ जीव पुण्य लेकर आते हैं और पाप को बढ़ाते हैं, कुछ जीव पाप लेकर आते हैं और पाप बढ़ाते हैं, कुछ पाप लेकर आते हैं लेकिन सत्संगति से पुण्य को बढ़ाते हैं और लेकर जाते हैं। हमें प्रयास करना चाहिए कि पुण्य लेकर आए हैं तो पुण्य को बढ़ाएं और पुण्य ही लेकर जाएं।
जो भी धर्म कार्य करते हैं, या जिस तप, व्रत, संयम और नियम की आपने भावना भायी है, उसे सदैव कुछ अंश ही सही पर ज्यादा करने का ही प्रयास करेंगे तो आपका जीवन नन्दनवन बन जाएगा। यह मानव जीवन मिला है तो पूर्वभवों के पुण्य प्रताप से मिला है इस अवसर को यंू ही न गंवाएं। पुण्य का उपयोग तो हम करते जाते हैं लेकिन पुन: संचय करना भी जरूरी है। पापरूपी अकाल आपको घेरे इससे पहले अपने पुण्यों की शक्ति को इतना बढ़ाएं कि आपका जीवन धर्म की ऊंचाई को छू जाए।

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