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जैन समाज सिद्धि तप धारक साध्वी पूनमश्री जी को तपस्वी रत्ना की उपाधि से करेगा अलंकृत

जैन समाज सिद्धि तप धारक साध्वी पूनमश्री जी को तपस्वी रत्ना की उपाधि से करेगा अलंकृत

3 अगस्त को होगी साध्वी जी के सम्मान में गुणानुवाद सभा, 30 वर्ष के साधना काल में साध्वी जी कर चुकी हैं अनेक कठोर तपस्याएं

शिवपुरी। सिद्धि तप करने वाली साध्वी पूनमश्री जी को श्वेताम्बर जैन समाज ने 3 अगस्त को आयोजित समारोह में तपस्वी रत्ना की उपाधि से अलंकृत करेगा। उस दिन साध्वी पूनमश्री जी के सिद्धि तप की पूर्णाहूति होगी। सिद्धि तप करने वाली साध्वी पूनमश्री जी अपने 30 वर्ष के साधना काल में अनेक कठिन तपस्याएं कर चुकी हैं। जिनमें दो-दो वर्षी तप, मासखमण (30 दिन का उपवास), पांच दिन से लेकर आठ दिन, 16 दिन और 19 दिन के उपवास भी अलग-अलग समय पर कर चुकी हैं। 20 स्थानक की ओली (400 दिन के उपवास), 250 से अधिक पच्चखाण सहित अनेक तपस्याएं शामिल हैं।

उनकी गुरूणी मैया साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज कहती हैं कि साध्वी पूनमश्री भगवान महावीर की तप आराधना की सच्ची अनुगामी हैं। सिद्धि तप क्या है? इसे सरल भाषा में स्पष्ट करते हुए साध्वी नूतन प्रभाश्री जी बताती हैं कि 44 दिन के सिद्धि तप में 36 दिन निराहार और कुल मिलाकर 8 दिन आहार लिया जाता है। इसकी विधि का वर्णन करते हुए साध्वी नूतन प्रभाश्री जी कहती हैं कि एक उपवास से तपस्या प्रारंभ कर 2, 3, 4, 5, 6, 7 और 8 उपवास किए जाते हैं और प्रत्येक उपवास के बाद एक दिन आहार लिया जाता है। साध्वी पूनमश्री जी की तप आराधना की अनुमोदना में शिवपुरी जैन समाज के 61 श्रावक और श्राविकाएं एक दिन से लेकर 5 दिन तक का उपवास कर रहे हैं जिनकी पूर्णाहूति भी 3 अगस्त को होगी। जैन समाज में तपस्या की बाढ़ आने से समाज में उत्साह का वातावरण है और प्रतिदिन प्रवचन से लेकर शासन माता के गीत और प्रतिक्रमण आदि का सिलसिला जारी है।

साध्वी पूनमश्री जी प्रसिद्ध जैन साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज की सुशिष्या हैं। सांसारिक रिश्ते में उनकी गुरूणी मैया साध्वी रमणीक कुंवर जी उनकी बुआ हैं। साध्वी रमणीक कुंवर जी के सांसारिक भाई रावड़ साहब ने अपनी चार भाईयों के बाद इकलौती पुत्री पूर्णिमा कुमारी को रक्षाबंधन के अवसर पर अपनी बहन साध्वी रमणीक कुंवर जी को महज छह साल की उम्र में इस भावना के साथ भेंट किया था कि साध्वी बनने के बाद उन्हें दुनिया का कोई दुख नहीं सता पाएगा। पूर्णिमा कुमारी का जन्म 8 जुलाई 1971 को नर्मदा किनारे बसे गांव सनावत में हुआ था। गुरूपूर्णिमा के दिन जन्मी पूर्णिमा कुमारी को गुरू का आशीर्वाद जन्म से ही मिला था। पिता श्री रावड़ साहब डाकोलिया ने सन् 1977 में बड़वाह में अपनी लाड़ली पुत्री को गुरू चरणों में समर्पित किया थाl

छह वर्षीय बालिका को संतत्व के लिए स्वीकार करने में साध्वी रमणीक कुंवर जी ने हिचक दिखाई, लेकिन पूर्व जन्म के संस्कार बालिका के ऐसे थे कि उस छोटी सी बालिका ने दृढ़ एवं निर्भीक ्रशब्दों में स्पष्ट रूप से कहा कि मैं महासती जी के साथ रहूंगी। इसके बाद भी बालिका को कई बार घर भेजा गया, किन्तु वह पुन: लौटकर माँ सती की सेवा में आ गई। बालिका ने गुरू चरणों में रहकर बाह्य शिक्षा एवं आध्यात्मिक ज्ञान का अध्ययन किया। 15 वर्ष तक वह लगातार ्रधर्म आराधना और साधना में संलग्र रहीं। गुरूणी मैया और अन्य साध्वियों के साथ पैदल विहार किया। आखिरकार दीक्षा की शुभ घड़ी आई और खास बात यह है कि दीक्षा का मुहूर्त पूर्णिमा कुमारी ने ही निकलवाया।

वर्ष 1993 में देवास में पूर्णिमा कुमारी को दीक्षा प्रदाता बने मालव गौरव पूज्य गुरूदेव श्रीप्रकाश मुनि जी और पूर्णिमा कुमारी से बनीं साध्वी पूनम श्री ने गुरूणी मैया के पद पर साध्वी रमणीक कुंवर जी को आसीन किया तथा उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। साध्वी पूनम श्री ने आत्मा से गुरू पूज्य सौभाग्यमल जी म.सा. को बनाया। तबसे आज तक साध्वी पूनम श्री जी ने ज्ञान की वृद्धि, श्रद्धा में दृढ़ता, चारित्र भावों में वृद्धि एवं तप में अपने आपको संलग्र कर लिया। उन्होंने अनेक जैनागमों का अध्ययन किया और तपस्या को अपने साध्वी जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया।

पदविहार करते हुए साध्वी पूनम श्री ने महाराष्ट्र, राजस्थान, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित नेपाल की राजधानी काठमांड़ु तक जिनवाणी की प्रभावना की। शिवपुरी में साध्वी पूनम श्री जी का अपनी गुरूणी मैया साध्वी रमणीक कुंवर जी, गुरू बहन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी, साध्वी जयश्री जी और साध्वी वंदना श्री जी के साथ प्रथम बार चातुर्मास हो रहा है। उनके सिद्धि तप की आराधना से पूरे समाज में उत्साह, उमंग और उल्लास की लहर है। उनकी तप आराधना की अनुमोदना जैन श्रावक और श्राविका तप के माध्यम से कर रहे हैं।

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