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जीव अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है: जयधुरंधर मुनि

जीव अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है: जयधुरंधर मुनि

श्री जयमल जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में जयधुरंधर मुनि के सानिध्य में जयपुरंदर मुनि ने उत्तराध्ययन सूत्र के नवें अध्ययन का विवेचन करते हुए कहा मेरी आत्मा अकेली है। ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूपी आत्मा से ही मेरा अटूट और आंतरिक संबंधित जुडा है।

शेष रिश्ते – नाते हैं, वे सब बाहरी है और संयोग – वियोग के चक्र से जुड़े हुए हैं। संसार की नींव जहां अनेकतत्व बताई है जिसमें समाज परिवार आदि का साथ अनिवार्य समझा जाता है, वहीं सिद्ध अवस्था की नींव एकत्व में है। जीव अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है।जहां दो होते हैं, वहाँ टकराव होता है।

दो बर्तनों के टकराने से आवाज होती है, दो बादलों के आपस में भिड़ने से गर्जना होती है, दो पत्थरों को रगड़ने से अग्नि पैदा होती है, दो गाड़ियों के टकराने से हादसा हो जाता है । इन सब प्रकार के टकराव से बचने के लिए साधक को केवल अपनी आत्मा को ही अपना मानना चाहिए।

इस भावना के द्वारा जो चिंतन करता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ और यह विचारधारा ही उसे स्वार्थ से परमार्थ की दुनिया में ले जाती है।दुनिया मतलबी है। आत्मा को कोई जला नहीं सकता, अंतर शत्रुओं से आत्मा की रक्षा करनी है । कषाय रूपी लुटेरे से आत्मा को बचाना है। तप रूपी अग्नि से विषय विकारों को जलाना है ।

मुनिवृंद के सानिध्य में 25, 26, 27 अक्टूबर को दीपावली पर्व के उपलक्ष में सामूहिक तेले तप का आयोजन किया गया है और 28 अक्टूबर को मुनि वृंद के मुखारविंद से प्रातः 8:30 महा मंगलिक होगा।

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