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चारो तीर्थ जीव को भव सागर को तारने के लिए है: पुज्य जयतिलक जी मरासा

चारो तीर्थ जीव को भव सागर को तारने के लिए है: पुज्य जयतिलक जी मरासा

रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने फरमाया कि चारो तीर्थ जीव को भव सागर को तारने के लिए है। धर्म तीर्थ का निरूपण किया। धर्म की आराधना करते हुए जान या अनजान में हुए पाप कर्म को क्षय कर सिध्त्व दिलाना ही धर्म का ध्येय है! अरिहंत भगवान चार घाती कर्मो को क्षय कर जीवों को धर्म बोध देते हैं। कुछ साधक अंश से निवृत हो जाते है किंतु 12 व्रत श्रावक के अंगीकार कर धर्म आराधना करते हैं। कुछ जीव व्रत धारण नहीं कर पाते है सहीं को सही मानते है कालान्तर में व्रत धारण कर आत्म कल्याण करते है! श्रुतधर्म- चारित्र धर्म

5 अणुव्रत 3 गुण व्रत 4 शीक्षा व्रत ग्रहण कर चारित्र रुपी साबुन से आत्मा रूपी कपड़े के रज मैल धोता है।

11प्रतिपूर्ण पोषध को जानकर जीवन काल में मर्यादा करेंगे। दूज, पांचम, आठम, ग्यारस, चौदस एवं पर्वदिनों में प्रतिपूर्ण पौषध करते है! एक मास के छः पोषद अनिवार्य बताए है! पौषध करने से आत्मा का सम्यक प्रकार के पौषध करता है आत्मा को हल्का बनाता है। पौषध रोज ही कर सकते है किंतु इन पर्व तिथियों का दिन जीव का आयुष्य कर्म बंधता है ! यदि जीव सावध प्रवृत्यो को प्याग कर पौषध करते है तो अशुभ गति का बंध की संभावना नहीं रहती है। पौषध में संसार की चिंतन नहीं करना चाहिए। एकान्त रूप से मात्र आत्म चिन्तन करना चाहिए।

यदि कर्मों की निर्जरा करनी है तो उस निर्जरा का ही चिंतन करना चाहिए जितनी निर्जरा होगी उतनी ही आत्मा बलशाली होगी और मोक्ष की तरफ अग्रसर होगी! पौषध में ज्ञान ध्यान, प्रतिक्रमण आदि शुभ प्रवृतीयों से आत्मा को भावित करना चाहिए! यदि इस व्रत को समझ कर धारण करते है तो यह व्रत आपका तारने वाला बनेगा। आत्म साधन कर उसका आनन्द ले सकेंगे मन वचन काया से समाधि में चले जाओगे! परम शान्ति का अनुभव होगा! इन पौषध में 5 बातों का ध्यान रखें।

1) चारो आहार का त्याग। 2) गले में पुष्प माला नहीं हो!

3) ब्रहमचर्य का पालन अनिवार्य, मन को आत्म चर्या में रमण करना! जीव को कहाँ से आया कहाँ जाना है इसका चिंतन करना।

4) आभूषण अलंकार का पूरा त्याग करना 5) तेल, मेहंदी, पावडर आदि शरीर श्रृंगार का त्याग अनिवार्य है। क्योंकि पुदगल जीव को आकर्षित करता है। जीव को राग द्वेष होता है शरीर के 16 श्रृंगार में से एक भी श्रृंगार नहीं होना चाहिएा

आरम्भ आदि पाप का एक अहोरात्री (आठ प्रहर) का प्रतिपूर्ण पौषध होता है। ,18 पाप का संपूर्ण त्याग होना चाहिए! एकान्त रूप से आत्म चिन्तन में ही लीन हो जाना चाहिए। प्राप्त ज्ञान को संजो कर रखो। पौषध में आत्मपोषण और शरीर शोषण होता है। आत्म को आठ कर्मो से मुक्त कराना ही पोषध का लक्षण है! इसलिए पर्व तिथीयों में श्रावक पौषध करता है। पौषध के 18 दोष है।

1. पौषध के पूर्व दिन ठूंस-ठूंस कर खाना 2-पौषध करने के पूर्व नख केश, हजामत आदि की सफाई करना। 3. पौषध के पूर्व दिन कुशील का सेवन नहीं करना।‌ 4. पोषध की निमित्त से स्नान आदि करना।‌ 5) पोषध की निमित्त से वस्त्र आदि धोना धुलवाना 6) पोषध की निमित्त से आभूषण पहनना। यह छे दोष पूर्व में लगने वाली दोष है। 7) स्वयं डरना या दूसरों को डराना 8) संसारिक रिस्तो को बुलाना 9) अशातना से बोलना 10) क्लेश करना । 11) स्त्री के अंग उपांग निरखना नही ! इन्दिर्यों के विषयों को त्याग करना। उपरोक्त दोषों से रहित शुद्ध पौषध करना। आत्मा की पौषध ज्ञान शुद्धि, दर्शन

शुद्धि और साथ मे शुद्धि होती है पौषध में एक प्रहर सोने की अनुमति है। सामायिक में सोने की आज्ञा ही नहीं है।

पौषध के स्वरूप को समझे, आचरण करे एवं आत्मा का कल्याण करो। संचालन मंत्री नरेंद्र मरलेचा ने किया। यह जानकारी अशोक खटोड़ ने दी।

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