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ज्ञान वाणी

क्षमापना से एक कदम आगे बढ़ें, प्रेम की ओर: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

क्षमापना से एक कदम आगे बढ़ें, प्रेम की ओर: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. रविवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने आज श्रेणिक चरित्र का समापन करते हुए बताया कि श्रेणिक की भावना धर्म करने की थी वैसा आचरण व संयम स्वयं नहीं कर पाया लेकिन जो लोग भौतिक कारणों से धर्म नहीं कर पाए उनके लिए अपनी सारी समृद्धि समर्पित कर दी और तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया। ऐसे समय में श्रेणिक ने परमात्मा के सानिध्य में तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया जब उसका नरक का बंध हो चुका था। लेकिन अपने अंतिम समय में श्रेणिक ने अच्छे भावों को न समझ पाने की नकारात्मकता के कारण कृष्ण लेश्या का बंध किया। श्रेणिक आने वाली चौबीसी में पद्मनाभ बनेगा। श्रेणिक अपने मन में भगवान महावीर को स्वयं के हृदय में बसा लिया था और पूरी तरह तल्लीन हो गया। इसी के कारण वे पूरी तरह भगवान महावीर की प्रतिलिपी होंगे।

रानी चेलना अपने पुत्र कोनिक को धिक्कारती है कि वह प्रेम करने वाले पिता को कष्ट देकर अनर्थ कर रहा है, मैं तुमसे प्रेम नहीं करती फिर भी मुझसे तुम प्रेम करते हो। कोनिक को समझ आती है और वह श्रेणिक को मुक्त कराने जाता है, श्रेणिक आते हुए कोनिक के प्रेम के भावों को नहीं समझ पाता है। उसे स्वयं की हत्या करने हेतु आते हुए समझकर पुत्र को पितृहन्ता न कहलाना पड़े इसके लिए अपनी अंगूठी के हीरे से अपना जीवन समाप्त कर लेता है। कोनिक उसे बेडिय़ों से आजाद कराने गया तो भी उसका अच्छा कार्य भी बुरे में परिणित हो गया। कोनिक पश्चाताप करता है और परमात्मा महावीर के पास जाकर श्रेणिक के प्रति अकारण अपने मन के वैर के बारे में पूछता है। परमात्मा उसके पूर्व के तपस्वीजन्म के बारे में बताते हैं। उस समय श्रेणिक राजा थे जो उसे तीन बार पारणे के लिए आमंत्रित करके भी अपने प्रमाद और बारबार दिए हुए वचन को भूल जाने के कारण आहार नहीं करा पाता है और वह तपस्वी संथारा लेकर राजा को ऐसा ही कष्ट देने की भावना से आयुष्य पूर्ण करता है। जो इस श्रेणिक के भव में उसका पुत्र बनकर उसे कष्ट देता है। लेकिन श्रेणिक उसके प्रति उस भव में भी अच्छे भाव थे, वह श्रद्धावान था और इस भव में भी उस पुत्र से उसे बेहद प्रेम था।

कई बार हम ये नहीं समझ पाते हैं कि हमारी अच्छी भावना होने के कारण भी उसे कोई स्वीकार कर पाएगा कि नहीं, इसकी कोई संभावना नहीं है। किसी का भला करने जाते हैं फिर भी उसका बुरा हो जाता है। मन, वचन, काया, भावना सही है फिर भी गलत हो गया। राजा में प्रमाद, असावधानी थी, समय बीतने के बाद आंसू काम नहीं आते। हम कहते हैं कि इस जन्म में कुछ गलत नहीं किया फिर भी कष्ट प्राप्त हो रहा है। यह सब कहीं न कहीं पूर्व जन्मों का ही फल होता है। इसीलिए परमात्मा ने साधुओं को वचनबद्धता देने का मना किया है। जैसा समय हो वैसा हो जाएगा, ऐसी धारणा ही होनी चाहिए।

श्रेणिक के जाने के बाद कोनिक को हर पल श्रेणिक की याद आती है और वह अपनी राजधानी चंपानगरी बसाता है और परमात्मा महावीर के पास जाकर चक्रवर्ती बनने की इच्छा बताता है और परमात्मा के मना करने पर भी हठपूर्वक तैयारी करता है। वह भविष्य की चिंता न करते हुए नकली चिन्ह, आयुद्ध और चक्र आदि बनाकर सेना सहित चलता है और एक राज्य में प्रवेश करते हुए आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

जो भविष्य की चिंता नहीं करता है, वह अपने कुछ क्षण के सुख के लिए आगे कितना दु:ख झेलना पड़ेगा इसकी परवाह नहीं करता है। जो देव, गुरु, धर्म की अवहेलना करता है, वह पाप का भागी बनता है और उसका जीवन नासमझी में व्यर्थ हो जाता है।

उपाध्यायय प्रवर ने कहा कि अपने रिश्तों को सही तरीके से देखें और उनमें निरंतर क्षमापना की आराधना करते रहें, इससे आपकी सारी आराधना के फलित होने की पूरी संभावना है। इसलिए सबसे पहले क्षमापना की आराधना करते रहें। जीवन में बहुत बार कड़वे अनुभव आते हैं। कई बार किसी से मन में द्वेष और शत्रुता के अनुभव याद आते रहते हैं। उस समय हमारा मन एकदम उद्वेलित हो जाता है। हम क्षमापना करने के बाद भी उन्हें अपने मन से निकाल नहीं पाते हैं। ऐसे समय में अपना समय बर्बाद न करें और उस व्यक्ति के प्रति एक ही भावना रखें कि आप उसे प्रेम करें और वह भी आपको प्रेम करे। आप पाएंगे की आपके मन की भावनाओं का चक्र रूक जाएगा। क्षमा से एक कदम आगे प्रेम की ओर बढऩे से आपको शांति प्राप्त होगी, कांटों में भी फूल खिल जाएंगे।

तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि जो देने के योग्य है उसी से कुछ प्राप्त करना चाहिए। जो देने के बाद पुन: प्राप्त करे या उसका गलत फायदा उठाए ऐसे लोगों से कभी भी सहायता प्राप्त न करें। जिस प्रकार दुर्योधन ने कर्ण को राजा बनाया तो उसने बिना सोचे समझे स्वीकार कर लिया और पूरे जीवन भर उसका गुलाम बन गया। गलत आदती से अहसान लेने पर उसे जीवनभर गुलामी करनी पड़ती है, पछताना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति मौका आने पर सूद समेत वसूल कर लेते हैं। जो देने समर्थ है उसी से मांगना चाहिए। हम सभी अपूर्ण हैं और सबको देने वाले तीर्थंकर प्रभु ही एकमात्र परिपूर्ण हैं, उनसे मांगें, न कि अपूर्ण से। जो परमात्मा से सीधा जुड़ा रहता है, वह तिर जाता है। वे सर्वोच्च शक्ति हैं जो बिना मांगे भी आशीर्वाद बरसाते हैं, तो मांगने पर तो उम्मीद से ज्यादा प्रदान करनेवाले हैं।

उपाध्याय प्रवर ने कहा कि उत्तराध्ययन की आराधना का श्रवण अवश्य करना चाहिए। हमारे जीवन में कहांकहां चुनौतियां, समस्याएं आती हैं, किनके हमें जवाब देने चाहिए और किनके नहीं, उत्तराध्ययन हमारे प्रत्येक सवाल का जवाब देता है। हमें इसे ग्रहण करना चाहिए। प्रभु की इस अंतिम देशना से स्वयं के साथ दूसरों को भी जोडऩे का कार्य करें, धर्म की प्रभावना करें।

मध्यान्ह में 2 से 4 बजे तक अष्टमंगल शिविर संपन्न हुआ। 16 अक्टूबर से आयंबिल ओली शुरू होगी। 18 अक्टूबर को प्रात: 8 बजे सी.यू.शाह भवन, पुरुषावाक्कम से उत्तराध्ययन का भव्य वरघोड़ा निकाला जाएगा। 19 अक्टूबर से उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन प्रात:  8 से 10 बजे तक होगा।

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