कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की कड़ी में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि ने जैन दिवाकर दरबार में धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि श्रावक के 12 व्रतों में तीसरे व 4 थे व्रत का विवेचन करते हुए फरमाया कि चोरी सिर्फ धनमाल आदि सामान चुराने से ही चोर होते पर जिसके पास शक्ति है।
त्याग तपस्या करने की क्षमता है और वह नहीं करता किसी की सेवा सहायता सहयोग नहीं करता तो वह भी शक्ति का चोर है और धन होते हुवे भी धन का सदुपयोग नहीं करता धर्म के काम में नहीं लगाता तो वह भी चोर है।
तपस्या करने की क्षमता होते हुवे भी वह नहीं करते तो वह भी तप का चोर है और ज्ञानी होते हुए भी किसी को ज्ञान न देना प्रचार नही करता तो वह भी चोर है।
चौथ व्रत की चर्चा करते हुवे कहा कि छोटी उम्र वाली के साथ गमन नहीं करना और जिसके साथ अभी सिर्फ सगाई हुई है पर विवाह नहीं हुआ उसके साथ भी गमन नहीं करना काम सेवन के अंग है।
उसके सिवा अनंग है उनसे काम क्रीड़ा करना परिवार तथा मित्र संबंधी के अलावा दूसरे की सगाई विवाह कराना या दलाली करना काम भोग की तीव्र अभिलाषा रखने के लिये या तीव्र कामोतेजक गरिष्ट पदार्थों का सेवन करना यह चौथे व्रत के विषय में भगवान ने बहुत कुछ कहा है।
विषय वासना का त्याग ही ब्रम्हचर्य है मन वचन काया से चौथ व्रत का पालन करने से आत्मा शुद्ध पवित्र बनती है।