दिंडीवनम. यहां विराजित जयतिलक मुनि ने कहा अभय दान देने वाला, दिलाने वाला और अनुमोदना करने वाला तीनों ही जीव भवसागर से तिर जाते है। जो ज्ञान होने के बावजूद ज्ञान को विस्तार नहीं देता है वो नहीं तिर सकता। संसार परिभ्रमण का मूल कारण अज्ञान है।
एक परोसी हुई थाली से हमारा वैराग्य उतर जाता है। मसानिया वैराग्य तो बहुत बार आया, तिरमिची वैराग्य नहीं आया। अगर आया होता तो हम इस संसार में नहीं होते। हर भव में धन कमाया, संसार बसाया, पर अब वो कहां है पता नहीं। शरीर से काम लेते रहो नहीं तो जंग लग जाएगा।
शादी के बाद हम आठ कर्म के जाल में फंस जाते हैं। जीवन भर व्यक्ति गधा बनकर रह जाता है। गधा यानी गलत धारणा। जैसे गधा सावन में हरी घास देखकर सोचता रहता है कि मैं इतनी घास कैसे खाऊंगा और वैशाख में सूखी घास खाकर खुश होता है।
वैसे ही मनुष्य भी आठ कर्म में फंस कर खुश होता है। पहले ही समझ जाए और दीक्षा ले ले तो सुखी हो जाएगा। यह संसार हमें भोग भोगने के लिए नहीं मिला है बल्कि अपने कर्म बंधन काटकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने के लिए मिला है। इसी भावना से चलेंगे तो एक दिन हम भी मुक्त हो जाएंगे।