कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): साधना के क्षेत्र में ज्ञान और आचार दोनों का होना आवश्यक होता है। ज्ञान के बिना आचार का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। सम्यक् ज्ञान के बिना भला अच्छे आचार की कामना की कैसे की जा सकती है। ज्ञान विहीन आचार का मूल्य कम हो सकता है।
ज्ञान हो और फिर उसका आचरण अच्छा हो तो उसका विशेष महत्त्व होता है। ज्ञानपूर्वक आचार का पालन और ज्ञानपूर्वक होने वाली साधना ज्यादा लाभदायी हो सकती है। साधना के लिए धर्म की आराधना आवश्यक है। धर्म के दो प्रकार बताए गए हैं-संवर और निर्जरा।
‘सम्बोधि’ में बताया गया है कि संवर धर्म से शत् और अशत् संस्कार सर्वथा निरुद्ध हो जाते हैं। यहां संस्कार शब्द का प्रयोग कर्म के अर्थ में प्रयोग किया गया है और शत्-अशत् का अर्थ शुभ और अशुभ के अर्थ के लिए किया गया है। संवर से शुभ और अशुभ कर्म आने से निरुद्ध हो जाता है। मन, वचन और कार्य की प्रवृत्ति योग कहलाती है।
यदि आदमी के भीतर संवर की साधना उत्कृष्ट है तो शुभ योग भी रूक जाता है। शुभ योग की विद्यमानता में मोक्ष का प्राप्त होना भी संभव नहीं होता। क्योंकि जब तक आत्मा के भीतर शुभ या अशुभ योग रहता है, आत्मा मोक्ष की ओर गति नहीं कर सकती। शुभ योग रूपी आश्रव आदमी के साथ तेरहवें गुणस्थान तक रहने वाला है। उसके जाने के बाद ही मुक्ति की बात की जा सकती है।
संवर की साधना शुभ या अशुभ कर्मों को आत्मा से चिपकने से रोकता है। आदमी यदि शुभ कार्य भी करता है तो उसे पुण्य का लाभ प्राप्त होता है। पुण्य भी जब आत्मा में नहीं रहेंगे तो मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। सामायिक भी एक प्रकार से संवर की साधना है। सामायिक न शुभ योग है और न ही अशुभ योग है। आदमी के भीतर संवर और निर्जरा तत्त्व है तो आदमी के कर्म झड़ते हैं।
साधु के तो प्रत्येक कार्य के साथ निर्जरा हो सकती है। यदि साधु जागरूक है तो उसके प्रत्येक कार्य से निर्जरा हो सकती है। आदमी को सामायिक के दौरान अनावश्यक सांसारिक बातों में नहीं लगाना चाहिए। सामायिक के दौरान व्यापारिक चिन्तन से भी बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचार का पालन करने का प्रयास करना चाहिए।
उक्त जीवनोपयोगी पावन पाथेय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्य, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, मानवता के मसीहा, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की।
आचार्यश्री ने आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के जीवनी पर स्वरचित ग्रन्थ ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ का सरसशैली में वाचन कर उनके जीवन के विभिन्न प्रसंगों को रोचक ढंग से व्याख्यायित किया। उसके माध्यम से आचार्यश्री ने बताया कि आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के बाल मन में एक दोहे का अलग अर्थ बनना भी उनके जीवन के विकास का निमित्त बन गया।
महातपस्वी आचार्यश्री को तपस्या रूपी भेंट अर्पित करने में मानों बेंगलुरुवासियों में होड़-सी मची हुई है। बुधवर को अनेकानेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणानुसार तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। इन तपस्वियों में श्रीमती मंजू बोहरा तथा श्रीमती बिन्दु रायसोनी ने 31 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान कर अपने आराध्य के श्रीचरणों में तपस्यारूपी सुमन अर्पित की।
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*जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा*