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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप मे जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- जिस प्रकार शरीर में रही एक छोटी -सी भी केन्सर की गाँठ अंतः मे मौत का कारण बनती है। उसी प्रकार हृदय में रही छोटी -सी भी वैर की गाँठ जीवात्मा को भवोभव तक अनेक प्रकार से मार खिलाती है।
केन्सर से भी वैर की गाँठ ज्यादा भयंकर है। क्रोधादी चार कषायों को जितने के लिए मैत्री आदि चार भावनाओं से मन को भावित करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। क्रोध हमारे मन मे रही प्रीति को नाश करता है। उसे प्रीति को पुनः स्थापित करने के लिए मैत्री भाव से सभी जीवों को स्वतुल्य मानना पडेगा।
अन्य की भूल को हम माफ नहीं करते है, जबकि अपनी भूल को हम देखते भी न्ही है। यदि हृदय मे मैत्री का भाव हो तो क्रोध पैदा ही नही होगा। कदाचित पैदा हो भी जाय तो मैत्री का भाव उसे नाश कर देगा।
मान कषाय को नाश करने गुणवान जीवो पर प्रमोद भाव-प्रेमभाव स्थापित करना होगा। जब हमें हमारा सुकृत बडा लगता है तब हमें अभिमान आता है परंतु जब मन मे प्रमोद भाव स्थापित होता है, तब अपना किया हुआ सुकृत हमे छोटा लगने लगता है और मान का नाश हो जाता है।
माया कषाय को नाश करने सभी दुःखी जीवो पर करुणा का भाव स्थापित करना होगा। जिसके मन मे करुणा का स्त्रोत बहता हो वो किसी को कैसे फँसा सकता है अतः करुणा भाव से माया का नाश स्वतः हो जाता है। लोभ कषाय को नाश करने पापी जीवो पर माध्यस्थ भाव धारण करना होगा ।
लोभ के पाप से जिसका अन्तर्मन पापीत बना है। उसे सुधारने से हमारा प्रयत्न कभी सफल नही होगा अतः उनके प्रति रहा उपेक्षा का भाव हमारे लोभ को शांत करेगा । क्षमा करो और भूल जाओ । किसी के अपराध को वचन से क्षमा कर देना आसान है। किंतु वचन से क्षमा कर देने के बाद उसे मन से भूल जाना अत्यंत ही कठिन है।
वचन से क्षमा कर देने के बाद भी मन के किसी कोने मे अपराधी के कारण अपराध की स्मृति रह जाती है, परिणाम स्वरुप कभी उसकी पुनः स्मृति हो जाती है, ओर क्षमा कर देने के बाद भी हमें वह व्यक्ति अपराधी नजर आता है। सचमुच क्षमा कर देने के बाद अपराधी की भूल को भूल जाना चाहिये ।
भूल जाने से तात्पर्य है – अपराधी के अपराध से जन्य हृदय की कटुता को धो देना। क्षमा देने के बाद हृदय मे किसी प्रकारी की कटुता नही रहनी चाहिये यदि उसके बाद भी हृदय में कटुता रहती है तो समझना चाहिये कि हमने वास्तव मे क्षमा दान नही किया है।