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ज्ञान वाणी

सम्यक पुरुषार्थ सफलता का स्रोत: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

सम्यक पुरुषार्थ सफलता का स्रोत: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. प्रभु महावीर के समवशरण का ध्यान और रचना अपने अन्तर में कराते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि संसार का कोई भी जीव श्रम और पराक्रम किए बिना नहीं रहता है। किंतु जहां श्रम और पराक्रम यदि सम्यक हों तो सपने पूरे होते हैं और जहां पुरुषार्थ मिथ्यात्व में होता है तो सपने टूट जाते हैं।

श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने गुंरुंवार को श्रद्धालुओं को यह मार्ग बतलाया। उन्होंने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान करने के लिए ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप को जानें। परमात्मा द्वारा बताए गए 71 बोलों में से यदि एक की भी आराधना कर ली जाए तो बाकी सभी आपके जीवन में साकार होने लग जाएंगे। मन, वचन काया और योग को हिंसामुक्त करेंगे तो अन्य भी स्वत: मुक्त हो जाएंगे।

मंजिल पाने के लिए सभी प्रयास करते हैं और लम्बे रास्तों पर भी चलते हैं लेकिन प्रायश्चित नहीं करने के कारण सभी को प्राप्त नहीं होती। परमात्मा ने उत्तराध्ययन सूत्र में सीधे सवाल-जवाब और कसौटी दी है, जिस पर स्वयं को परखें। यहां अपनी गलती को सुधारकर सही परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। परमात्मा का ज्ञान शत प्रतिशत शुद्ध अध्यात्म है जिसे कोई भी नास्तिक, वैज्ञानिक, समाजशास्त्री या सामान्य जन भी स्वीकार कर सकता है।

उन्होंने कहा कि मन में श्रद्धा का जन्म हो तो मनुष्य सुविधाओं की तरफ नहीं दौड़ता, व्याकुल नहीं होता, सुखों के लिए समझौता नहीं करता। ऐसे व्यक्ति को सुख मिलते हैं लेकिन उनके लिए व्याकुल नहीं होता। भौतिक सुख किसी को भी पूर्ण नहीं मिलते, एकमात्र श्रद्धा का सुख ही पूर्ण होता है। किसी की सेवा यदि अपना दायित्य और कर्तव्य समझकर की जाए तो मात्र संसार का बंध और संसार का सुख मिलेगा और यदि किसी की सेवा श्रद्धापूर्वक की जाए, उसमें स्थित परमात्मा की सेवा समझकर की जाए तो उसका तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया जा सकता है। इसमें मात्र अहोभाव का ही अन्तर है, इसे समझें।

उन्होंने कहा कि परमात्मा ने प्रायश्चित को अभ्यंतर तप कहा है। अपनी गलती को मानें, स्वीकारें और उसका प्रायश्चित करें, विनयशील बनें। किसी की सेवा करते समय नम्रतापूर्वक अहोभाव से करें। सेवा प्राप्त करने वाले को कभी न झुकाएं, ऐसे भाव बनाए रखकर जीवन में वयावृती करें और अंत में स्वाध्याय करने वाले के जीवन में आनन्द ही आनन्द की अनुभूति रहती है। परमात्मा ने कहा है कि स्वाध्याय करते हुए भी इसमें अध्यापन करना, उन्हें दोहराना, जो सुना है उस पर चिंतन करना और धर्मकथा करना। चिंतन तो सभी करते रहते हैं लेकिन रौद्रध्यान और आर्तध्यान छोड़कर धर्मध्यान करें यही मुक्तिदायक है।

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