जिस दिन मां-बाप की नजर में बेटा बड़़ा हो जाए, बेटा का दुर्भाग्य उसी समय शुरू हो जाता है। इसलिए अपने मां-बाप के सामने कभी बड़े मत बनो, बल्कि बच्चे ही बनकर रहो।
माता-पिता को चाहिए कि अपनी संतति से दूरी न रखकर उनको गले लगाएं ताकि बच्चे का मन न भटके, उसे बुरी आदतें न लगे, गलत संगत में नहीं पड़े अन्यथा बिगडऩे के तो हजारों रास्ते खुले रहते हैं।
श्रीकृष्ण द्वारा नियति को चुनौती देना ही उनका सबसे बड़ा कार्य था। वे अपने जन्म से आयुष्य पर्यन्त भाग्य और नियति को चुनौती देते रहे और इसी गुण के कारण वे सभी के पूजनीय बने।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि मनुष्य गति ही ऐसी है कि इसमें व्रत और नियम का पालन किया जा सकता है। धरती पर जब भी कोई मनुष्य व्रत और नियम लेता है और यदि वह देवों की नजर में आ जाए तो वे वहीं से उसकी अनुमोदना और वंदन करने लगते हैं क्योंकि देवगति के देवों को व्रत और नियम लेने का सौभाग्य नहीं मिलता जो मनुष्य गति में मिलता है।
आगम में श्रावक के लिए कहा गया है कि अंतिम समय में जो धर्मध्यान और संलेखना करते हैं उनकी देवगति होती है। धर्म के प्रभाव और लेश्या को ग्रहण करने के लिए श्रद्धा और भावों की जरूरत होती है, ज्ञान की नहीं बल्कि धर्म करने वाले के जैसा आचरण करके भी उच्च गति पायी जा सकती है।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि गलत काम करने के डर से धर्मक्रिया कभी बंद न करें। धर्मक्रिया करते हुए कभी गलत कार्य नहीं करें, अपना मन को भटकाएं नहीं, जबकि गलत कार्य करते समय भी धर्मध्यान किया जा सकता है, अपने मन को धर्म में लगाया जा सकता है।
क्षमा के महापर्व संवत्सरी के अवसर पर प्रेरणा दी कि यदि सामने वाले की गलती है तो भी उससे आप क्षमा मांगकर उसकी भावानाओं को बदल सकते हैं, और उसके मन में भी क्षमा और दया का भाव जगाया जा सकता है।
रिश्तों में क्षमापना करने का महत्व बताते हुए कहा कि अपने रिश्तों को संभाल लेंगे तो आपका रिश्तों के प्रति आचरण भी संभल जाएगा। यदि रिश्तों को नहीं संभाल सकेंगे तो आचरण सही नहीं हो पाएगा।