चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में चातुर्मासार्थ विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा संसार में रहते हुए घर गृहस्थी चलाने के लिए धन की आवश्यकता पूरी करने के लिए व्यापार या किसी दूसरे माध्यम से पुरुषार्थ करना ही पड़ता है, लेकिन एक श्रावक को चौबीसों घंटे पूरा समय उसी के लिए व्यतीत न करते हुए कुछ समय अपने आत्मा कल्याण के लिए भी निकालना चाहिए।
मुनि ने बताया श्रावक वहीं होता है जिसकी रगों में करुणा, अनुकंपा और दया का भाव समाहित हो और व्रतधारी हो। व्रत-श्रावक धर्म की मूल आधारशिला है। श्रावक बनने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति एवं आदर्श त्यागवृत्ति की आवश्यकता होती है। श्रावक को कभी फल की आकांक्षा से धर्म नहीं करना चाहिए।
क्रोध आदि कषायों को, दुर्गुणों को जैसे ही व्यक्ति खो देगा तो उसके भीतर अपने आप ही गुण प्रकट हो जाएंगे। एक श्रावक का जीवन स्वावलंबी होना चाहिए। किसी दूसरे पर आश्रित रहने की जरूरत नहीं पडऩी चाहिए। जीव जैसा करेगा वैसा ही भरेगा। सबको अपने पूर्व कृत कर्मों का फल किसी ना किसी रूप में भोगना ही पड़ेगा।
एक श्रावक कभी किसी चमत्कार के पीछे नहीं भागता। वह तो आत्मा के साक्षात्कार पर विश्वास रखता है। व्यक्ति को अपने मूल धरातल को कभी नहीं छोडऩा चाहिए।
मुनिवृंद के सानिध्य में सोलह दिन की सोलह सती तप साधना प्रारंभ हुई है जिसमें श्राविकाओं ने हिस्सा आराधना की। प्रात:काल 7.30 से 8.30 बजे कर्म विज्ञान की कक्षा का भी आयोजन किया गया।