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ज्ञान वाणी

शक्ति का संचय और नकारात्मकता को रोकना है सामायिक: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

शक्ति का संचय और नकारात्मकता को रोकना है सामायिक: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

16 अक्टूबर से आयंबिल ओली की आराधना

चेन्नई. गुरुवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रेक्टिल लाइफ सत्र में युवाओं को अपने अन्तर की शक्ति को जागृत करने के लिए सामायिक सूत्र के प्रयोग बताए। उन्होंने कहा कि सामायिक करने से हमारे अन्तर के यूनिक सिस्टम को सही और उसके प्राकृतिक स्वभाव में लाया जा सकता है। सामायिक या ध्यान करने से तन, मन और आत्मा स्वस्थ रहती है। जब तक तन-मन में थकान अनुभव न हो तब तक चलते रहें अपना कार्य करते रहें। यदि अन्तर के मूल प्रवाह के साथ यदि हम छेडख़ानी करेंगे तो इसके दुष्प्रभाव हमारे सामने आएंगे।

आचारांग सूत्र में कहा गया है कि मन, वचन, काया से किसी का बुरा न करना और न ही कराना। मन के सोचने से कार्य संपादित और प्रभावित होते हैं। जब किसी के लिए अच्छा सोचते हैं, शुभकामनाएं सोचते हैं तो उस पर अच्छा प्रभाव और बुरा सोचने पर उस पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मन के वाइब्रेशन इसे प्रभावित करते हैं और यह सामथ्र्य हर व्यक्ति में होता है। जब सामायिक करते हैं तो उतने समय के लिए अपने सावध्य के द्वार बंद कर लेते हैं, बाहर से आने वाले वाइब्रेशन को रोकना और अन्तर की ऊर्जा को संचित करते हैं। पांच चरित्रों में से सामायिक को एक चरित्र कहा गया है। मन से किसी का बुरा नहीं करेंगे और न ऐसे विचार बोलेंगे कि सामने वाले का मन बुरे विचार, दुर्भावनाएं जाग्रत हो जाए ऐसा करना सामायिक है।

उपाध्याय प्रवर ने आचारांग में बताया कि सबको अपना जीव प्रिय है। देव, मानव, तीर्यंच और यहां तक कि नारकी जीवों को भी अपना जीव प्रिय होता है। उन्हें वहां का दुख प्रिय नहीं है लेकिन जीवन प्रिय है। आयुष्य नामकर्म का बंध ही बड़ा विचित्र है कि जीव जहां जाता है वहां की स्थिति से प्रेम करता है। देवलोक का जीव भी देवगति से प्रेम करता है और मृत्युलोक को जानकर चिंतित होता है, घृणा करता है और उसे शीघ्र छोडऩे का सोचता है लेकिन बाद में सबकुछ भूल जाता है लेकिन यहां आकर इसी शरीर से प्रेम करने लगता है। जीवन जीने की लालसा गजब की है जो सारी प्रतिकूलताओं को झेलकर शरीर से मोह करता है। जब मकान रहने लायक नहीं है, जर्जर हो चुका है, कभी भी गिर सकता है फिर भी उसी से मोह लगाए रखता है।

जीवन का शरीर छूटेगा तो उसे दूसरा शरीर अवश्य मिलेगा, फिर भी नहीं जीव इसे छोड़ नहीं पाता है। जीव की यह लालसा गहरी है इस पर जो जीत प्राप्त कर ले वही संलेखना लेता है। यह प्रवृत्ति अनादीकाल से है, इसे छोडऩे पर अन्तर की शक्ति का जागरण हो जाता है और उसकी शक्ति बढ़ जाती है। जो व्यक्ति संसार से लगाव के कारण व्यर्थ हो रही थी वही संचय होकर उसका तेज बढ़ा देती है।

आयुष्य के बाद जीव सुख चाहता है। और इसी आयुष्य की प्रियता के कारण ही वह सारे परिग्रह करते रहता है और फिर भी उसकी जीने की गारंटी नहीं है। जितना ज्यादा इक_ा करता जाता है उसनी ही छोडऩा कठिन होता है। वह आत्मा, ज्ञान, संयम और चरित्र को खोकर पाप, वैर, दुश्मनी का संग्रह करता है और यही अंतिम समय में साथ चलता है न कि संपत्ति, रिश्ते-नाते और जमीन-जायदाद। यह समझ में आ जाए तो अन्य की जरूरत ही नहीं है। इस आसक्ति के घेरे को तोड़ोगे तो धर्म का खुला आसमान आपके सामने है। जहां आसक्ति है वहां अक्ल काम नहीं करती। जिससे जितना राग होगा, दूसरे से उतना ही द्वेष भी होगा। संघ और धर्म के प्रति श्रद्धा रखें, सभी को देव, गुरु धर्म से जोड़ें। उस शाश्वत सत्ता से जुड़ेंगे तो मन में नफरत आ ही नहीं सकती। परमात्मा के प्रति श्रद्धा और प्रभावना करें अन्य की नहीं। परमात्मा की पूजा करें, पुजारियों की नहीं।

श्रेणिक चरित्र में बताया कि राजा श्रेणिक का बेटा नंदीसेन सभी को दीक्षा लेते देखकर परमात्मा के पास दीक्षा लेने जाते हैं और तभी देवगण कहते हैं कि तू संयम से भटकेगा, लेकिन परमात्मा उन्हें दीक्षा लेने से रोकते नहीं है। जितना पुण्य कर सकता है उतना तो कर लिया जाए तो बहुत अच्छा है। वे प्रतिज्ञा करते हैं कि भोगों को तो नहीं रोक सकते लेकिन स्वयं को संयम में दृढ़ कर लेंगे और भोगों को भोगने लायक शरीर ही नहीं रहेगा तो कैसे संयम पथ डिगेंगे। वह तप के द्वारा अपनी काया को कृषकाय कर लेते हैं और उनके अन्तर में शक्तियों का जागरण हो जाता है। वे अनजाने में गोचरी के लिए गणिका के घर पहुंचते हैं और उसके उलाहना देने पर मन के अहंकार के वश होकर लब्धी का प्रयोग कर धन-संपदा का ढ़ेर लगा देते हैं। गणिका उन्हें पैरों में गिरकर रोक लेती है और मुनि अपने मोहनीय कर्मवश वहां रुक जाते हैं, लेकिन प्रतिदिन दस व्यक्तियों को दीक्षा देकर आहर ग्रहण करने के प्रण के साथ। उनका संयम तो चला गया लेकिन ज्ञान का प्रकाश रह जाता है और इस तरह वे वहां रहते हुए रोजाना दस लोगों को दीक्षा देते हैं। ज्ञान को यदि संकल्प का बल मिल जाए तो ज्ञान भी सिद्ध हो जाता है।

तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि अहिंसा का जीवन जीने वाला स्वयं के साथ-साथ सर्वजीवों के लिए मंगलमय और कल्याणकारी होता है, वह दूसरों को शरण देनेवाला होता है। जीवन में त्याग और संयम का अनुशरण करें। जो त्यागी हैं वे सबके अग्रगामी हैं। दु:ख के जंजाल से मुक्त होने के लिए संयम से बढक़र कोई रास्ता नहीं है। अहिंसा की आराधना से जीवन सर्वपुष्ट हो जाएगा और तीर्थंकर परमात्मा भी इसकी महिमा गाते हैं। अङ्क्षहंसा, संयम और तप- इन तीनों का सामंजस्य जीवन को मंगलमय बनाता है।

16 अक्टूबर से आयंबिल ओली की आराधना और पू. सुमतिप्रकाश महाराज की जन्मजयंती मनाई जाएगी। 18 अक्टूबर को 8 बजे प्रात: उत्तराध्ययन सूत्र का भव्य वरघोड़ा निकाला जाएगा सी.यू.शाह भवन से एएमकेएम ट्रस्ट में पहुंचेगा।

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