चेन्नई. सईदापेट स्थित जैन स्थानक में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा हर मनुष्य को यह सदैव चिंतन करना चाहिए कि उसके लिए क्या करना हितकर है एवं अहितकारी है। भगवान महावीर ने हेय, ज्ञेय, उपादेय रूप तीन तत्वों के माध्यम से जानने योग्य बातों को जानना, छोडऩे योग्य बातों को छोडऩा एवं ग्रहण करने योग्य बातों को ही ग्रहण करने का विधान किया है।
क्रोध में व्यक्ति अपने हिताहित को भूल जाता है। मोह के कारण व्यक्ति बेभान बन जाता है। मोहनीय कर्म ही संसार परिभ्रमण का मूल कारण बनता है। क्रोधावेश में लिए गए निर्णय गलत साबित होते हैं क्योंकि इस समय व्यक्ति के विवेक नेत्र बंद हो जाते हैं। क्रोध का जवाब क्रोध से नहीं देना चाहिए क्योंकि वह आग में घी डालने के समान होता है।
अपेक्षा की उपेक्षा, स्वार्थ पूर्ति ना होने पर एवं इच्छा के विरुद्ध कार्य न होने पर व्यक्ति क्रोध में चला जाता है। क्रोध का फल कड़वा, विष की बेलडी के समान दुखद होता है। क्रोध के निमित्त ही क्षमा के निमित होते हैं। क्रोध उत्पन्न होने के प्रसंग पर क्षमा धारण करना ही सर्वश्रेष्ठ आत्म नियंत्रण का अवसर है।
मुनि ने एक दृष्टांत के माध्यम से प्रतिकूल स्थिति में भी क्रोध ना करने हेतु प्रेरित किया। क्रोधी कलह एवं अशांति का मूल कारण होता है। आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को कभी कषायों के वेग में नहीं जाना चाहिए।
इस अवसर पर वेलेचेरी श्री संघ ने विनती प्रस्तुत की, जिस पर मुनि ने शनिवार को आने की स्वीकृति दी। मुनि का होली चातुर्मास वडपलनी में निश्चित हुआ है। संघ मंत्री पदम छाजेड़ ने धर्म सभा का संचालन किया। अध्यक्ष गौतम लोढा ने आगंतुकों का स्वागत किया।