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राग और द्वेष संसार परिभ्रमण का मूल कारण है: जयधुरंधर मुनि

राग और द्वेष संसार परिभ्रमण का मूल कारण है: जयधुरंधर मुनि

वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा राग और द्वेष संसार परिभ्रमण का मूल कारण है। राग द्वेष रूपी बीज से ही कर्म रूपी वृक्ष उत्पन्न होता है।

मोह का क्षय होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। राग और द्वेष कषाय उत्पत्ति के निमित्त बनते हैं। व्यक्ति जिसके प्रति राग रखता है उसके अवगुण नहीं देखता और जिसके प्रति द्वेष रखता है उसके गुण नहीं देखता।

अतः राग के कारण प्रशंसा और द्वेष के कारण निंदा की वृत्ति बढ़ती है। निंदा करना महापाप है ।कोई भी व्यक्ति दूसरों के द्वारा निंदा नहीं सुनना चाहता, पर स्वयं दूसरों की निंदा करता है। निंदा दूसरों की नहीं अपितु अपने ही अवगुणों की करनी चाहिए।

परनिंदा एवं स्व प्रशंसा करने के बजाए स्व निंदा एवं पर प्रशंसा होनी चाहिए। निंदा करना कीचड़ उछालने के समान है जिससे उसके स्वयं के हाथ भी दूषित हो जाते हैं।

पीठ पीछे निंदा करने में रस आने पर अशुभ कर्मों का बंध होता है। निंदा करने की प्रवृत्ति होने के कारण अनेक बार दूसरों पर झूठा कलंक एवं मिथ्या आरोप भी लगा दिया जाता है।

मुनि ने श्रावक के 11 वें गुण के अंतर्गत निंदा और प्रशंसा रूपी द्वंद में समभव रखने के लिए प्रेरित करते हुए कहा प्रशंसा और निंदा दोनों ही परिस्थिति को पचाने की क्षमता होनी चाहिए।

दूसरों के द्वारा झूठी निंदा होने पर क्रोधित होने वाला व्यक्ति झूठी प्रशंसा किए जाने पर भी वैसा ही प्रतिकार क्यों नहीं करता। निंदा या प्रशंसा प्राप्त होना अपने ही पूर्वकृत कर्मों का खेल होता है।

झूठा आरोप लगाए जाने पर भी सत्य एक न एक दिन अवश्य प्रकट होता है। इस भव के गलती ना होते हुए भी उसे पूर्व भव की गलती मानते हुए सहन कर लेना चाहिए। महापुरुष विरोध को विनोद मानते हुए सामने वाले पर रंच मात्र भी द्वेष नहीं रखते।

निंदक को सहयोगी मानते हुए यह चिंता न होना चाहिए इससे निमित्त से दोषो का बन होने पर उसमें सुधार किया जा सकता है।

निंदक बिना पानी और साबुन के ही आत्मा को निर्मल बनाने में सहायक सिद्ध होता है। ऐसे भाव होने पर निंदक के प्रति समभव बना रहता है।

मुनिवृंद के सानिध्य में शुक्रवार को सामयिक काले वर्ण का एकासन एवं शनिवार को जन्माष्टमी पर विशेष प्रवचन एवं जयधुरंधर मुनि का जन्म दिवस मनाया जाएगा।

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