चेन्नई. शनिवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने कहा कि जिन सुधर्मास्वामी ने परमात्मा को जीया उन्होंने परमात्मा की वाणी को अपनी गहरी अनुभूति से मुक्ताहार में पिरोकर उत्तराध्ययन में प्रस्तुत किया है, इसे हम सभी ग्रहण कर स्वयं को धन्य करें।
सांसारिक जीव पाप कर्मों को उस स्वादिष्ट भोजन की तरह करता जाता है जिसमें जहर मिला हुआ है। लेकि उसका परिणाम तो समय आने पर उजागर होता है और उस समय कुछ भी उपाय नहीं हो होता। इसी प्रकार धर्म स्वादिष्ट नहीं है लेकिन पोषक है। परमात्मा ने कहा है कि पाप करते समय अच्छा और परिणाम आने पर भयंकर लगता है। हमें याद ही नहीं रहता कि हमने ठोकर खाई है, और पुन: उन्हीं रास्तों पर चलते जाते हैं। वे भाग्यशाली हैं जिन्हें पापों की सजा याद रह जाए।
मृगापुत्र अपने भोगों में डूबा रहता है लेकिन एक दिन एक मुनि के दर्शन होने पर उनके संयम और उनके मुखमंडल के तेज को अपलक देखता ही जाता है और गहरे आात्मचिंतन में डूबे हुए उसे अपने पिछले जन्मों के कर्म और उनसे मिली हुई नरक की यातनाएं याद आती है और जातिस्मरण ज्ञान होता है। उसके लिए अब सारे भोग और सुविधाएं नरक का मार्ग लगने लगती है और वह संसार से विरक्त होकर। अपने माता-पिता को दीक्षा स्वीकार करने की बात कहता है कि मैंने इन विष भोगों को भोगा है और इनके फल जहरीले हैं, दु:खों का कारण हैं। इनसे उत्पन्न होनेवाले सभी कर्म बहुत दु:खदायी है। इस अनित्य शरीर से अब मेरी कोई प्रीति नहीं है। यह दु:ख और क्लेश का पात्र है, मैं दीक्षा लेना चाहता हंू।
मुझे अब मोक्ष मार्ग का लम्बा सफर तय करना है और अपनी आत्मा की शक्ति को जाग्रत करना है। सांसारिक दु:खों के सामने तो साधु जीवन के दु:ख शाश्वत नहीं है। मन से सुखों की इच्छा निकल गई तो साधु जीवन में मुश्किल नहीं। नरक में मेरे वैक्रिय शरीर को अनन्त यातनाएं दी गई है। उन नारकी की प्रताडऩा के आगे तो यह कुछ नहीं है, मुझे अब पुन: उस नरक में नहीं जाना है। इस प्रकार मृगापुत्र अपनी प्रत्येक अनुभव सुनाता है और उसके चेहरे से नरक की यातनाओं के भय और पीढा स्पष्ट झलकती है, उसका दु:ख जीवंत हो जाता है। जिसे देखकर उसके माता-पिता उसे स्वीकृति देेते हैं। वह संयम को ग्रहण कर मृग के समान जीवन जीता हुआ अपनी आत्मा का कल्याण करता है।
साधु जीवन से ज्यादा दु:ख तो तीर्यंच और सांसारिक जीवन में है। पापों के बीज को अंकुरित होने से न रोका जाए तो वह पापों का जंगल बन जाता है और उसके साथ और पाप बढ़ते जाते हैं। भावनात्मक बीमारी को तो संयम से दूर किया जा सकता है और शलिभद्र मुनि को जिस पल महसूस हो गया कि इस शरीर के लिए पाप कर्म कर रहे जो नश्वर है, उसी पल सुखों की इच्छा समाप्त हो गई। नारकी के दु:खों के सामने तो मनुष्य जीवन का दु:ख बंूदमात्र है।
राजा श्रेणिक को चेलना परमात्मा के धर्म पर चलाने और श्रेणिक उसे अपने धर्म पर लाने के लिए अनेकों प्रयास करते हैं लेकिन जब वह अनाथी मुनि का सानिध्य प्राप्त करता है तो उसे संसार की नश्वरता और सत्य का बोध होता है। श्रेणिक अपने नारकी के बंध होने के बाद भी परमात्मा प्रभु के बताए मार्ग पर चलता है और अपना तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है। वह स्वयं के साथ दूसरों का धर्म मार्ग प्रशस्त करता है। जो धर्म नहीं कर सकते उनकी भी वह स्वयं जिम्मेदारी लेता है। हमारे जीवन में भी अनाथी मुनि जैसे कोई आ जाए और हम भी किसी के लिए अनाथी मुनि बन जाएं। हमारी आस्था हो जाए कि नरक के बंध हो जाने के बाद भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध हो जाए। जिन जिनेश्वर से मैं जुड़़ा हंू उनसे पूरी दुनिया को जोड़ दें। धर्म की इस विरासत को संभालेंगे तो यह तुम्हें तीर्थंकर बना देगी। हमारी भक्ति ऐसी हो जाए कि पूरी दुनिया को जिनेश्वर की भक्ति से जोड़़ दें।
हमारी आत्मा शरीर की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर सकती है, चेतना के लिए कोई बीमारी असाध्य नहीं है। यदि अध्यात्मक उस ऊंचाई को छू लें कि जहां किसी के अपशब्द भी वरदान बन जाएं। मानसिक बनी रहती है कि बीमारी ठीक नहीं होगी, तो ही वह असाध्य बनती है। इसलिए अपनी मानसिकता बदलें, आत्मा में विश्वास जगाएं कि असाध्य कुछ भी नहीं है तो आत्मशक्ति से स्वस्थ बना जा सकता है। तुम्हारी सभी समस्याओं के समाधान तुम्हारे पास ही है किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं।
जैन धर्म का सिद्धांत है कि किसी के सामने याचक न बनें। जो स्वयं को समर्थ समझें, वहीं स्वयं का नाथ है, सामथ्र्यवान है। मेरी चेतना ने दूसरों को दु:ख दिया तो ही मुझे दु:ख मिला है, दु:खी दु:खों के कारण खोजता है और क्षमा करने वाला क्षमा के कारण खोजता है। आत्मा से ही नरक, स्वर्ग, और मोक्ष है, यही कामधेनु, नन्दनवन और रेगिस्तान भी है। जो स्वयं का मित्र है वही धर्म के मार्ग पर है।
कई लोग नाथ बनने के बाद भी अनाथ हो जाते हैं। ऐसे लोग डरपोक, भयभीत और कमजोर होते हैं, यह बहुत भयंकर है। ऐसे लोग परमात्मा के पुजारी बनने के बाद भी कायर बनते हैं और दूसरों के आगे याचना करते हैं, परमात्मा और स्वयं का अपमान करते हैं।
अनाथी मुनि के शब्दों में ऐसे लोग कालकूट हर पी रहे हैं, यह शस्त्र को उल्टा पकडऩे के समान है। ऐसे लोग धर्म का वेश पहनकर अधर्म का व्यवहार करते हैं, स्वार्थ के लिए धर्मध्वज का उपयोग करते हैं, वे बहुत खतरनाक है। परमात्मा के धर्म में रहकर कायर नहीं वीर बनें और राजा श्रेणिक के समान धर्म का साम्राज्य खड़ा करें।
इंदौर से पधारी दीक्षार्थी बहन सिमरन का चातुर्मास समिति की कांताबाई चोरडिय़ा और मैनाबाई तालेड़ा द्वारा बहुमान किया गया। रविवार को सज्जनबाई झामड़़ के 101 उपवास तप की पच्चखावणी तथा उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि चातुर्मास समिति द्वारा उन्हें ”तप चंद्रिकाÓÓ उपाधि से सम्मानित किया जाएगा।