श्रद्धा और तत्व को समझ कर सम्यक्त्व स्वीकार करने की दी पावन प्रेरणा
महातपस्वी के सान्निध्य में बह रही तप की अविरल गंगा
माधावरम स्थित महाश्रमण समवसरण में धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री महाश्रमणजी ने ठाणं सुत्र के दूसरे अध्याय का विवेचन करते हुए कहा कि दर्शन के दो प्रकार बताए गए हैं, सम्यक् दर्शन और मिथ्या दर्शन। वैसे दर्शन शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, एक अर्थ है देखना, जैसे मैने गुरू या चारित्र आत्माओं के दर्शन किये। दूसरा अर्थ है प्रदर्शन यानि दिखावा, तीसरा अर्थ है सिद्धांत जैसे जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, भारतीय दर्शन इत्यादि दर्शन का चौथा अर्थ है।
आँख (लोचन) जिसके द्वारा देखा जाए, दर्शन का पाँचवा अर्थ है सामान्यग्राही बोध (सामान्य ज्ञान) जैसे पच्चीस बोल के नवमें बोल में चार दर्शन बताये गये हैं। दर्शन का छठा अर्थ होता है तत्वरूचि यानि श्रद्धा, आस्था, आकर्षण।
आचार्य श्री ने आगे बताया कि सम्यक् दर्शन यानि वस्तु सत्य के प्रति यथार्थ दृष्टि और मिथ्या दर्शन यानि वस्तु सत्य के प्रति अयथार्थ दृष्टि, सम्यक्त्व का बड़ा महत्व है, यह बड़ा रत्न है। धरती पर तीन रत्न बताये गये हैं पानी, अन्न और अच्छी वाणी पर सम्यक्त्व इनसे भी बड़ा रत्न है, इसके समान कोई नहीं है। सम्यक्त्व जैसा मित्र कोई नहीं है, सम्यक्त्व जैसा भाई कोई नहीं है, सम्यक्त्व सबसे बड़ा लाभ हैं, इसके बिना चारित्र की भी कोई कीमत नहीं। सम्यक्त्व अंक के समान हैं, जैसे अंक है, तो शून्य का महत्व है अन्यथा शून्य का कोई महत्व नहीं।
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जयाचार्य ने लिखा है कि सम्यक्त्व के बिना इस जीव ने अनन्त बार चारित्र की साधना की, पर काम नहीं सरा, मोक्ष नहीं मिला। अब हमें सम्यक्त्व प्राप्त हैं, अच्छा लाभ लेना चाहिए आचार्य श्री ने आगे कहा कि संसार में दो तरह के जीव होते हैं भव्य और अभव्य अभव्य जीव घोर मिथ्यात्वी होता है, वह साधु बन सकता है, आचार्य भी बन सकता हैं, नौ ग्रवैयक (इक्कीसवें) देवलोक तक जा सकता हैं, जबकि सम्यक्त्वी श्रावक बारहवें देवलोक से आगे नहीं जा सकता, परन्तु अभव्य जीव तो संसार का परिभम्रण ही करेगा, मोक्ष नहीं जा सकता, कारण उसने आचार तो पाला पर उसमें सम्यक्त्व का प्राण नहीं था।
भव्य – अभव्य बनना हमारे हाथ में नहीं है। मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी बन सकता हैं, पर भगवान महावीर यदि दुबारा भी इस धरती पर आ जाये, तो भी अभव्य प्राणी मोक्ष नहीं जा सकता, यह उसका अनादि पारीणामिक भाव हैं, नियति है। आचार्य श्री ने आगे कहा कि श्रद्धा सही हो। सही बात स्पष्ट है, तो स्वीकार कर ले, यह सम्यक् दर्शन का आधार है। स्पष्ट लग जाने पर भी नहीं मानना, मिथ्या बात है, मिथ्यात्व हैं।
आचार्य श्री ने कहा कि राजा प्रदेशी जो निष्ठुर था, उसके हाथ खून से लाल थे, धर्म – कर्म नहीं मानता था, नास्तिक विचार धारा वाला व्यक्ति था, परन्तु मुनि कुमार श्रमण केशी का सम्पर्क हुआ, तत्व चर्चा हुई और तत्व को समझ कर नास्तिक से आस्तिक बन गया। हम भी अगर तत्व को समझकर सम्यक्त्व स्वीकार करें तो उसका विशेष महत्व है, ऐसे ही श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करें तो वह सामान्य बात है।
आचार्य श्री ने आगे श्रद्धा का महत्व बताते हुए कहा कि ज्ञानपूर्वक श्रद्धा का महत्व है। श्रद्धा गाय हैं, तो ज्ञान खूंटा है। ज्ञान के खूंटे के बिना श्रद्धा रूपी गाय भटक सकती हैं। सम्यक् ज्ञान का खूंटा है, तो भटकाव नहीं होगा। जो सही बात है, उसके पक्ष में रहे। वीतराग प्रभु की बात सत्य है, नि:शंक है। जीव अजीव आदि नव तत्वों को समझे, देव, गुरू, धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा हो, आत्मा की त्रैकालिक सत्ता पर श्रद्धा हो। सम्यक् दर्शन पृष्ट रहे यह हमारे लिए काम्य हैं।
मुख्य मुनिश्री महावीरकुमारजी ने आलोचना, निन्दा, गर्हा के बारे में विस्तार से बताते हुए श्रद्धालुओं को स्वयं की आलोचना करने, अपने दोषों की निन्दा करने और अप्रस्तुत वृति को स्वीकार करने की प्रेरणा दी। मुनिश्री ध्रुवकुमारजी ने शनिवार की सामायिक करने की प्रेरणा दी।
नम्रता आंचलिया, विमला लोढ़ा, सुधा सेठिया, दमयन्ती बाफणा, शान्ता बाफणा ने 11 की एवं मनीषा आच्छा ने 9 की तपस्या का पूज्य प्रवर के श्री मुख से प्रत्याख्यान किया। श्री देवराज आच्छा ने सुचना दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार जी ने किया।