चेन्नई. मिथ्यात्व का फल संसार है तो समकित का फल मोक्ष है। आगम में सम्यक दर्शन को चिंतामणि रत्न की उपमा दी है। चिंतामणि रत्न से भव से दरिद्रता दूर हो जाती है। समकिती जीव नरक में रहकर भी स्वर्ग का सुख अनुभव करता है। वेदना होने पर निज स्वरूप में रमण करता है। प्रतिकूलता में अनुकूलता को निहारता है। उसका चिंतन अधोमुखी न होकर उध्र्वमुखी होता है।
ताम्बरम जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा आध्यात्मिक भवन में प्रवेश करने के लिए द्वार सम्यक दर्शन है। दर्शन आत्मा का गुण है सम्यक्तव और मिथ्यात्व दोनो पर्याय हैं। अंनतकाल से आत्मा दर्शन मिथ्यात्व के साथ होने से मिथ्यात्व दर्शन के रूप में रही। जब उसका संस्पर्श सम्यकत्व के साथ होता है वही दर्शन सम्यक दर्शन हो जाता है।
जहां सत्य और प्रेम होता है वह दुनिया में सबसे शक्तिशाली होता है। सत्यवादी अरण्यक सत्य के पीछे अपने प्राण त्याग करने के लिए तैयार हो गया था। राजा हरिश्चंद्र ने भी अपने परिवार को त्याग दिया था। कष्टों का अंबार सहन करके भी सत्य का साथ नहीं छोड़ा।