चेन्नई. इस्ट गोदावरी जिले में स्थित तुनी गाँव में आचार्य जयन्तसेनसूरि के शिष्य मुनि संयमरत् न विजय ,मुनि भुवनरत् न विजय ने प्रवचन देते हुए कहा कि मित्र और शत्रु हमारी ही परछाइयाँ हैं। मैं प्रेम हूँ तो संसार भी मित्र है। मैं घृणा हूँ तो परमात्मा भी शत्रु है। जीवन जीने का आनंद वे ही प्राप्त कर सकते हैं,जो स्वयं को जीते है, स्वयं को जानते है और स्वयं को प्राप्त करते हैं।
एक मंदिर दूसरे मंदिर के विरोध में खड़ा है, क्योंकि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के विरोध में है। एक शास्त्र दूसरे शास्त्र का शत्रु है,क्योंकि मनुष्य मनुष्य का शत्रु है। मनुष्य जैसा होता है,वैसा ही उसका धर्म होता है। इसलिए तो धर्म मैत्री लाने के बजाय शत्रुता के गढ़ बन गए हैं और जगत को प्रेम से भरने के बजाय उन्होंने वैर-वैमनस्य के विष से भर दिया है।
जीवन तो हमारी ही प्रतिध्वनि है,जैसा हम देते हैं,बोते हैं,वैसा ही लौटकर आता है। अच्छा काम होने पर इंसान कहता है कि मैंने किया और बुरा हो जाने पर सारी बुराईयों का बोझ दूसरों पर डाल देता है। पोते संस्कारवान है तो सासु कहेगी पोते अच्छे क्यों नहीं होंगे,मेरे ऊपर जो गए हैं और पोतों से कुछ गलती हो गयी तो सासु ताने देते हुए बहु को कहेगी, क्या करे बहु ने कोई संस्कार ही नहीं दिये,इसलिए ऐसे बिगड़ गए। हमें हमारी इंद्रियों का सदुपयोग करते रहना चाहिए। कान मिले हैं तो भजन,प्रवचन सुने,किसी की बुराईयाँ नहीं।
आँखें मिली है तो संत-भगवंत,महापुरुषों के दर्शन करें, बुरे चलचित्रों के नहीं। मुख मिला है,तो सुंदर प्रभु भक्ति के गीत गाएं, अपशब्द या किसी की निंदा नहीं। हाथ मिले है तो दान-पूजन करें, किसी को मारे नहीं। पैर मिले है तो चलकर प्रभु व गुरु के दर्शन करें, व्यर्थ घूमे नहीं, किसी को पैर न लगाएं।