चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा धर्म अनन्त सुख का कारण है। इससे आत्मिक ही नहीं अपितु भौतिक सुख की प्राप्ति भी होती है। भौतिक सुख भी धर्म के बिना नहीं मिलेगा। धर्म के चार प्रकार है दान, शील, तप, भाव।
मनुष्य कर्म का अर्थ अनादि काल से समझ नहीं पाया, इसलिए धर्म और साधु साध्वी के प्रति कई शंकाएं उत्पन्न होती है। यह कदन्न का राग है। जब सद्गुरु उपदेश देते हैं और यह जानकर कि सुनने वाले में अरुचि उत्पन्न हो रही है फिर भी वे हार नहीं मानते। सिद्धर्षि गणि कहते हैं जो निष्पृहता से धर्म उपदेश देते हैं उनकी कर्म निर्जरा होती है, उससे श्रोताओं को लाभ हो या नहीं।
धर्म उपदेशक को कभी निराश होकर अपना प्रयास नहीं छोडऩा चाहिए। अनादि काल से मिथ्यात्व मोह के संस्कार के कारण धर्म के प्रति रुचि पैदा नहीं होती है। उसके लिए तीन औषधियां हैं सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चारित्र। यदि आपके पास सम्यक ज्ञान नहीं है तो कोई कुछ नहीं कर सकेंगे। तीनों औषधियों से कर्मों के रोग दूर हो जाएंगे।
उन्होंने कहा शासन के प्रति शुभ भाव पाने के लिए गुरु दर्शन, वन्दन, वैयावच्च, धर्म को सुनने की जिज्ञासा, दान आदि करने की भावना हो तो ऐसी आस्था जीव का भद्रक भाव है। भय और शंका के कारण किसी को भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए। इसके लिए दिन में एक बार धर्मस्थल में जाकर साधु संत के दर्शन, सम्पर्क करने का नियम लेना चाहिए।
सुसाधु की सद्क्रिया देखकर मिथ्यात्व टूटेगा, पाप कर्मों का क्षय होगा। उन्होंने कहा यह संसार अनादि अनंत है, आत्मा शाश्वत है। पूरे संसार में कर्म का प्रपंच चल रहा है इसीलिए जीवात्मा चारों ओर संसार में भटक रही है। उन्होंने कहा शुभ भाव से शुभ कर्म का उदय होता है।