जब तक राही मंजिल को नहीं पा लेता है। उसे चलना होता है । चलते चलते थकान होने पर विश्राम की अपेक्षा होती है, या लगातार काम करने से ऊपजी ऊब को दूर करने के लिए परिवर्तन की जरूरत होती है । हम सब जीवन यात्री हैं । बचपन ,जवानी, बुढ़ापा ये जीवन के पड़ाव हैं । बुढापा यानी वृद्धावस्था, जीवन की सांझ। रिटायर अवस्था में पहुंचकर व्यक्ति अनेक आशंकाओं, दुश्चिन्ताओं, परेशानियों से घिर जाता है ।
ये स्थितियां जहां कुछ स्वयं निर्मित होती है तो कुछ के लिए परिवार एवं समाज जिम्मेदार बनता है ।जीवन के चौथे सोपान में प्रवेश पर स्तब्ध न हो । सुबह हुई है तो सांझ भी होगी । जिंदगी बदलती जाती है । बचपन, यौवन बुढापा । इस वर्तलु के बीच आदमी बुढ़ापा ओढ लेता है । बुढ़ापे के बारे में नजरिया बदलिए। बुढ़ापे की मानसिकता ही समय से पहले बूढ़ा बना देती है ।
अकारण भय से पीड़ित रहने वाले का भय सचाई में बदल सकता है । बुढ़ापे को संवारे । उपरोक्त विचार आचार्य श्री महाश्रमण जी के विद्वान सुशिष्य मुनिश्री रमेश कुमार जी ने परिवार निर्माण सप्ताह के अन्तर्गत आज *बुढापा बनें सार्थक* विषय पर प्रवचन करते हुए व्यक्त किये । *मुनि रमेश कुमार ने* आगे कहा – • यह आप पर निर्भर है कि आप अपने जीवन को गुनगुनाते हुए जिऐं या भुन भुनाते हुए ।
• जवानी को सुख से जीओ ,तो बुढापे को शांति से जीओ ।
• घर में रहते हुए अधिक दखल अंदाजी करेंगे तो दो नुकसान होगा । एक परिवार के लोग टूटेंगे, आपकी बात नही सुनेंगे
दूसरा आप मानसिक रुप से अशांत रहेंगे ।
*मुनि सुबोध कुमार ने कहा*- धर्म के मुख्य रूप दो प्रकार है । उन्हें अलग अलग तरीके से व्याख्यायित किया गया है । एक है संवर धर्म दुसरा है निर्जरा धर्म। दूसरा क्रम है लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म । आगार धर्म और अनगार धर्म । इस तरह अलग अलग संदर्भों में धर्म को परिभाषित किया है । आगार धर्म अर्थात् गृहस्थ जीवन में रहकर व्रतों का पालन करना ।
अणगार अर्थात साधु का जीवन पांच महाव्रतों को धारण कर जीवन पर्यन्त उनका पालन करना । अपनी आत्मा को पवित्र बनाना । मन को संयम इंद्रियों का संयम कठिन है । ध्यान दें हमारा संयम कितना सधा है । इच्छाओं के जगत को संयम और व्रत चेतना के द्वारा ही जीता जा सकता है ।
*( संप्रसारक )*
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ ट्रस्ट ट्रिप्पीकेन चैन्नई