चेन्नई. किलपॉक में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरीश्वर ने कहा संसार एक बंधन है। बंधन में रहने को कोई तैयार नहीं। आजकल तो बच्चे मां-बाप के बंधन में रहने को तैयार नहीं हैं। बंधन कितना भी अच्छा हो लेकिन किसी को यह अच्छा नहीं लगता।
शिष्य को गुरु का बंधन भी अच्छा नहीं लगता। जन्म मरण भी उन्हें बंधन लगता है। लेकिन बंधन के बिना संसार से मुक्ति नहीं मिलने वाली। जब तक आप संसार में हैं, बंधन में रहोगे। जिसको मुक्त होने की इच्छा है वह मुमुक्षु कहलाता है। आत्मचेतना जागृत होगी तब ही बंधन को तोड़ सकते हो।
पत्नी, परिवार, परिग्रह भी बंधन है लेकिन हम इसे मानने को तैयार नहीं हैं। बंधन से मुक्ति होने पर ही सम्यक ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है। आर्य संस्कृति कहती है कि विद्या वही है जो पाप से मुक्ति की ओर ले जाए।
स्वयं के विचार और मान्यता का त्याग करना चाहिए। अभाव का दुख दूर करने के लिए संतोष का धन होना चाहिए। जहां संयोग है, वहां वियोग भी होता है।
शरीर में रोग का आना संभव है। जो चीज बनती है, वह बिगड़ती भी है। रोग शरीर में कभी भी उभर सकता है, इसलिए विकृति का दुख भी विद्यमान है।