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ज्ञान वाणी

प्रतिक्रिया करना पापों का मूल कारण है, इसका त्याग करें

प्रतिक्रिया करना पापों का मूल कारण है, इसका त्याग करें

चेन्नई. शुक्रवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने परमात्मा प्रभु महावीर के समवशरण का ध्यान और रचना अपने अन्तर में कराते हुए जीवन को शिखर पर पहुंचाने वाली शिखर अनुत्तर देशना की आराधना उत्तराध्ययन सूत्र का श्रवण कराया।

उन्होंने कहा कि हर प्राणी में सामथ्र्य होता है कि वह जीवन में गति को रोकता भी है और बढ़ाता भी है। लेकिन इसे कहां बढ़ानी और कहां नहीं ये दो सहज सूत्र से जो अवगत हो जाए वह जीवन जीने में समर्थ हो गया। चरण विधि का अध्याय यही हमें सिखाता है। जहां भी गति है वहां चरण है। बोलने, चलने, सोचने सभी में गति है और परमात्मा इस गति के वरदान बरसाते हैं।

एक तरफ प्रवत्ति से पहले दूसरी तरफ निवृत्ति होनी ही चाहिए। दो काम एक साथ न करें, किसी को सस्पेंस में भी नहीं रखें। किसी बात पर प्रतिक्रिया करना ही पाप कर्मों का मूल कारण है। व्यक्ति कभी स्वयं के प्रति और कभी दूसरों के प्रति राग, द्वेष करता है तो इसमें से पाप का ही जन्म होता है। श्रद्धा के मार्ग पर चलते समय सबसे पहले राग और द्वेष से मुक्त होना होगा।

कहीं प्रतिक्रिया नहीं करें, केवल क्रिया ही करें तो मोक्ष मार्ग बन जाता है। जो क्रिया से इनकार करता है वह प्रतिक्रिया में चला जाता है। कैकैयी ने प्रतिक्रिया का परिणाम भुगता और राम ने अपनी क्रिया से सफलता प्राप्त की। अपने मन, वचन काया और जिंदगी का निर्णय स्वयं को ही करना है, किसी अन्य को नहीं।


पांच शब्द है- कहां रोकना है, सहन करना है, छोडऩा है, निवृत्ति करनी है, वरजन करना है। जो करने योग्य है उसे करने में पूरा सामथ्र्य लगाना है और जो नहीं करने योग्य है उसकी ओर देखना ही नहीं है। उसे छोड़ दें जिससे आपका मन, जुबान और काया जहरीली बने।

जो आनन्द और जीवन की सारी शक्ति को समाप्त करता है। अध्यात्म कहता है कि तुमने जिस पर अहंकार या गौरव किया, उसको तुमने अपनी जिंदगी से विदा कर दिया। जिस जिस पर अहंकार किया उसको अलविदा कहा है। पमात्मा की चेतना मरीची के भव में अहंकार किया, परिणाम सामने है। स्थूलीभद्र ने अहंकार किया, मेरे पास जो ज्ञान और लब्धि है उसका प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति का मूल अहंकार है। परिणामस्वरूप गुरु के ज्ञान से वंचित होना पड़ा। चाहे रूप, धन, सत्ता का किया हो।  चाहते हो अपने सुख, प्रेम और ज्ञान को जिंदगी को विदा नहीं करना तो उस पर कभी गौरव और अहंकार न करें।

परमात्मा कहते हैं कि अहंकार उपलब्धियों से वंचित करने का रास्ता है। इसलिए कभी अहंकार मत करो। कांटों को छोड़ें। नियाणा और गलतफहमी पालते हैं तो नुकसान अपना ही होता है। इन कांटों को छोडऩा चाहिए। जो कष्टों से भागता है कष्ट उसके पीछे ही लगे रहते हैं। सदैव उनका डटकर मुकाबला करें।
जिनके कारण से मन और माहौल में बुरी भावनाएं आ जाएं, ऐसी कथा, प्रसंग और बातों का त्याग करना चाहिए। विकथाओं के कारण आपकी सफल होती मेहनत और तपस्या का सौभाग्य और ऐश्वर्य भी दूर चला जाता है, इसका वरजन और त्याग होना चाहिए। विकथाओं के कारण अन्तर की सारी एनर्जी बेकार हो जाती है, पता ही नहीं चलता कि कब गलत राहों पर चल पड़े हैं।

आज की युवा पीढ़ी के हाथों में स्मार्टफोन और इंटरनेट की सरल पहुंच के कारण वह इससे भयंकर रूप से प्रभावित हो रही है। यह आपकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि अपने घरों को इसके दुष्प्रभावों से बचाने की हर कोशिश करें। पता नहीं आने वाली जनरेशन संस्कारी हो पाएगी या नहीं। विकारों का बाजार बढ़ता ही जा रहा है। हर तरफ विकारों को सुंदरतम रूप में परोसा जा रहा है और लोग इस जाल में फंसते जा रहे हैं। परमात्मा ने कहा है कि जीना हो और मंजिल पर पहुंचना हो तो इसका त्याग कर दें।

हमें लगातार प्रयास करना चाहिए कि अपनी औरा डिस्टर्ब न हो। हर मां बाप की जिम्मेदारी है कि अपने घर वालों की औरा पवित्र बनाए रखे। जिसकी औरा सही होगी उसका जीवन सही होगा। हम किसी का आचरण और मन नहीं बदल सकते लेकिन उसकी लेश्या हम बदल सकते हैं।

महावीर ने चंडकोशिक की लेश्या चेंज कर दी थी। परमात्मा की औरा तो इतनी सशक्त होती है कि जन्मजात वैर स्वभाव के जीव भी उनके समवशरण में आकार बैठते हैं लेकिन उनकी लेश्या हिंसक नहीं होती है। वे अपना जन्मजात वैर भी भूल जाते हैं। इसके लिए ही समवशरण का ध्यान और आराधना करने को प्रेरित किया जाता है। अपने घरों में उत्तराध्ययन की आराधना होनी ही चाहिए। समवशरण से बड़ा तीर्थ जिनशासन में और कोई नहीं है, जिसमें आने वाले सभी जीव अपना वैर भूल जाते हैं और शांत हो जाते हैं तो अपने परिवार में इसकी आराधना से सभी सदस्य प्रेमभाव से रह सकते हैं।

यह अध्याय पूरी समग्र जीवन की सारी साधना के सारे सूत्रों को बताता है। अपना मन परमाधार्मिक और नारकी का न बने, कैसे उसे बचाएं। घर में कोई परमाधार्मिक हो जाए। जो जाकर दु:खी को और ज्यादा दु:खी करते हैं और खुश होते हैं, वे स्वर्ग का सुख छोड़कर नारकी में जाते हैं, अपना और स्वजनों का मन ऐसा कभी न बने। सारे पापों का मूल प्रमाद कहा गया है।

साधना के मार्ग से भी प्रमाद के कारण विरोधना में पहुंचता है। सिदिध मिलते-मिलते जो गिर जाता है वह प्रमाद। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रमाद को छोडऩे वाला कभी भी गिरता नहीं, असफलता नहीं होती। परमात्मा कहते हैं कि राग और द्वेष का क्षय करने के लिए बुजुर्गों की सेवा करना, जाकर बैठना। जो बचपना करते हैं उनसे दूर रहें। जब भी ज्ञानार्जन करना हो तो एकांत में करें।

घर ऐसा हो जहां सामान्य जानकारी और सभ्यता होना जरूरी है, कहां कैसा व्यवहार होना चाहिए। वासना से मोह और मोह से वासना है। तृष्णा से मोह और मोह से तृष्णा है। इसका उपाय परमात्मा ने कहा है कि कष्ट समाप्त कर दो, क्लेश और दुख समाप्त हो गया तो कोई मोह नहीं करेगा। मोह को समाप्त करने का सूत्र है- दु:ख समाप्त कर दें। किसी का सहयोग लेना हो तो कुशलबुद्धिवाले का ही लेना चाहिए नहीं तो बनते हुए काम बिगड़ जाते हंैं।

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