चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्र सूरीश्वर के शिष्य मुनि तीर्थ हंसविजय ने कहा जिस प्रकार एक बैल कभी दूध नहीं दे सकता उसी तरह संसार ने जिस पदार्थ में सुख मान रखा है, कितना भी प्रयत्न कर लो, उसमें सुख देने की क्षमता नहीं है।
यदि यह मन में स्पष्ट है तो पद, परिवार सब मिलता है पुण्य से, संयोग से, लेकिन उसमें आत्मिक सुख देने की क्षमता नहीं है। इतना मन में फीड कर लो कि पुद्गलों के प्रति आसक्ति ही संसार का भ्रमण चलने का मुख्य कारण है। कल्पसूत्र में तीन प्रकार के सूत्र होते हैं वार्तालाप के सूत्र, विचार के सूत्र और परमात्मा के वैभव के सूत्र।
परमात्मा को सुख सुविधाएं, वैभव होते हुए भी उनमें आसक्ति नहीं थी। उन्होंने कहा पुण्य से मिलने वाले पदार्थों के प्रति आसक्ति नहीं करनी चाहिए। जब किसी पुण्यशाली आत्मा की भक्ति करने की भावना आ जाए तो आपका पुण्य पुण्यानुबंधी है। हमें किसी धनवान या कलाकार को देखकर उसके जैसे बनने की इच्छा हो जाए तो वह पुण्यानुबंधी पुण्य नहीं है।
उसका बंध तभी होगा जब आप विधि, शुद्धि व बहुमानपूर्वक से क्रिया परमात्मा को अर्पण करेंगे। प्रतिक्रमण, अनुष्ठान, पूजा या कोई भी क्रिया में असीमित आदरभाव, अहोभाव व बहुमान होना चाहिए, तभी पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होगा। उन्होंने कहा हमें जिनवचन पर पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए। गौतम स्वामी पचास हजार शिष्यों के गुरु थे, महाज्ञानी थे फिर भी वे महावीर भगवान की देशना सुनना एक दिन भी नहीं छोड़ते।
उनको पता था भगवान क्या बोलने वाले हैं लेकिन वे तल्लीनता के साथ, बच्चों के जैसे भाव से सुनते थे। आप नमस्कार व्यक्ति को नहीं कर रहे हैं, उनके गुणों को कर रहे हैं।
आज तक जो अनुष्ठान किया, वह मोक्ष नहीं दे पाया क्योंकि अहोभाव, आदरभाव की कमी थी। परमात्मा की पूजा करने से पहले अहोभाव होना चाहिए। यह चिंतन करना चाहिए कि जो पूजा कर रहा हूं वह परमात्मा की कृपा से ही कर रहा हूं। तब ही पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होगा और मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ पाएंगे।