वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा जिनवाणी का श्रवण करने पर साधक के भीतर परिवर्तन की लहर जागृत होती है। परिवर्तन ही चेतना का सूचक होता है। व्यक्ति चाहे तो जीवन में कभी भी परिवर्तन ला सकता है।
सत्संग से जीवन में परिवर्तन आता है। जो कर्म में शूर होता है वही धर्म में भी शूर बन सकता है। मात्रा दिशा बदलने की आवश्यकता होती है। जैसे व्यक्ति दिशा बदलता है वैसे ही उसकी दशा बदल जाती है।
चातुर्मास निरीक्षण, परीक्षण और शिक्षण का अवसर होता है। निरीक्षण दूसरे व्यक्ति का नहीं अपितु स्वयं उनका करना चाहिए। श्रावक जीवन की सच्ची परीक्षा 21 गुणों में निहित है। मुनि श्री ने श्रावक के चौथे गुण लोकप्रियता का वर्णन करते हुए कहा कि हर मनुष्य लोकप्रिय बनना चाहता है, लेकिन उसके लिए उसे सहयोग ,उदारता, मैत्री, ईमानदारी , कर्तव्यनिष्ठा ,सदाचार आदि गुणों को अपनाना होगा।
जनता का प्रिय वही बन सकता है, जो जनता के साथ रहेगा। सिर्फ धन से लोकप्रियता हासिल नहीं हो सकती है, क्योंकि धन को लोग जान सकते हैं पर उसके लिए जान नहीं दे सकते हैं। बेईमान, धोखेबाज, अप्रमाणिक, भ्रष्टाचारी कभी लोकप्रिय नहीं बन सकता है।
उन्होंने राम और रावण का उदाहरण देते हुए मर्यादापुरुष राम की तरह जीवन में मर्यादा, सदाचार एवं कर्तव्य-निष्ठा अपनाने की भी प्रेरणा दी। जैनियों की प्रतिष्ठा का उल्लेख करते हुए कहा कि जैनी अपने आचरण के कारण समस्त समाज में विश्वास पात्र होते हैं।
उच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों को निष्कलंकता के साथ अपनी प्रतिष्ठा, साख को बनाए रखना चाहिए।इस अवसर पर 16 सती साधना करने वाले 110 साधिकाओं का सम्मान शांतिलाल रुनवाल परिवार की तरफ से किया गया।