चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में चातुर्मासार्थ विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा चातुर्मास करना संतों के लिए अपने कल्प का निर्वाह करना है। चार महीने एक स्थान पर रुकने का मूल कारण है जीव रक्षा।
जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है वर्षाकाल के दौरान जीवों की उत्पत्ति ज्यादा होती है अत: उनकी विराधना से बचने के लिए इस समय बाहर विचरण न करते हुए आत्मा में विचरण किया जाता है। संत तो आगमोक्त नियमों के सम्यक् पालन के लिए चातुर्मास करते हंै पर इसका लक्ष्य मात्र स्व कल्याण ही नहीं अपितु स्व-पर दोनों के कल्याण का होता है।
जिस प्रकार एक नदी सागर से मिलने के लिए अपने गंतव्य की ओर निरंतर बहती रहती है, लेकिन यदि बहते समय मार्ग में किसी व्यक्ति द्वारा एक घड़ा-दो घड़ा पानी उस नदी में से ले लिया जाए तो वह मना भी नहीं करती है।
मुनि ने कहा धर्म दबाव से नहीं अपितु स्वभाव से होता है क्योंकि धर्म जबरदस्ती का नहीं, जबरदस्त है। सभी को अपनी आत्मा का पोषण करने के लिए स्वेच्छा से तप त्याग करते हुए इस अवसर का पूरा लाभ उठाना है। खुद के साथ ही दूसरों को भी प्रेरित करते हुए धर्म दलाली करनी है।
घर का हर सदस्य चाहे छोटा हो या बड़ा किसी ना किसी रूप में चाहे प्रार्थना हो, क्लास हो, प्रवचन हो या मात्र दर्शन क्यों न हो सबकी सीर होनी चाहिए तो यह चातुर्मास सार्थक हो जाएगा। अगर यह मौका गंवा दिया तो फिर तो मात्र पछतावा ही रह जाएगा। जयपुरंदर मुनि ने कहा चातुर्मास का अर्थ है-चतुरों का मास।
जो चतुर है वही इसका लाभ उठा सकता है। आध्यात्मिक जीवन भी एक खेत के समान है, जिसमें आपको चातुर्मास काल में धर्म का बीजारोपण करना है और साधु-संतों के प्रवाहित द्वारा जिनवाणी रूपी अमृत वर्षा से उस धर्म-रूपी बीज का सिंचन करना है। गुरु पूर्णिमा पर मुनि ने कहा इस पूर्णिमा से गुरु भगवन्तों का लंबा सानिध्य मिलता है, इसीलिए इसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं।
गुरु पूर्णिमा का तात्पर्य यह भी होता है कि गुरु ही पूर्णता की ओर ले जाते है। गुरु नहीं तो जीवन शुरू नही। गुरु के प्रत्यक्ष या परोक्ष सानिध्य एवं कृपा के बिना हर व्यक्ति का जीवन अपूर्ण है। गुरु स्वयं भी पूर्ण बनते हैं और दूसरों को भी पूर्ण बनाने के लिए राह दिखाते है।