चेन्नई. किलपॉक में रंगनाथन एवेन्यू स्थित एससी शाह भवन में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा धर्म का स्वरूप है शुभ भाव। धार्मिक क्रियाओं के साथ शुभ भाव पैदा होने से चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है।
हमने क्रियाओ को धर्म मान लिया है लेकिन शुभ भाव के बिना वह आराधना अधूरी है । शुभ भाव ही धर्म की निशानी है। धार्मिक क्रिया में प्रसन्नता का आभास ही शुभ भाव है।
उन्होंने कहा तीर्थंकरों को केवल्य ज्ञान हो जाने के बाद यह सुनिश्चित हो जाता है कि वे मोक्ष की प्राप्ति करेंगे । परमात्मा यही चाहते हैं कि संसार में भटक रहे प्राणियों का कल्याण हो, सब मोक्ष की प्राप्ति करे ।
यदि तत्वों को समझने के लिए जिज्ञासा से प्रवचन श्रवण करेंगे तो यह शुभ भाव है। आचार्य ने कहा शुभ भाव चार प्रकार के होते हैं मैत्री, प्रमोद, करूणा और मध्यस्थ। अगर ये भाव नहीं है तो वास्तव में धर्म की आराधना नहीं है।
कोई जीव दुखी न हो, यह मैत्री भाव है। पाप करने वाले के प्रति कभी शुभ भाव नहीं आता लेकिन उसे पाप से छुटकारा दिलाना ही मैत्री भाव है। पाप की राह पर चले चण्डकौशिक को महावीर भगवान ने बोध देकर स्वर्ग गमन कराया ।
उन्होंने कहा दूसरों को हमेशा शुभ भाव का दान दो, हृदय में शुभ भाव रखो। दूसरों के सुख को देखकर खुश होना ही प्रमोद भाव है इससे पुण्य का सर्जन होता है । दूसरों के सुख को देखकर ईष्र्या होगी तो आपका पुण्य टूट जाएगा। जिस परिवार, संघ, समाज में प्रमोद भाव की कमी है वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता।
उन्होंने कहा परिवार में शांति कैसे आए इसके लिए रामायण का अध्ययन करना चाहिए । रामायण के हरेक पात्र में प्रमोद भाव दिखाई देता है। जिसके पास शुभ भाव है, कुदरत उसका फल देती ही है। यदि स्वार्थ भावना लगातार कम हो रही है तो यह समझना चाहिए कि भगवान की कृपा दृष्टि आप पर पड़ गई है।
उन्होंने कहा यदि हमें पता है कि हम मिट्टी से पैदा हुए हैं और मिट्टी में ही चले जाएंगे तो हम राग द्वेष की भावना क्यों रखें? हमें मोह के बंधन से छुटकारा पाना चाहिए।