माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में गुरूवार को आचार्य श्री महाश्रमण ने मानव समाज को विशेष प्रेरणा पाथेय प्रदान* करते हुए कहा कि युवा अवस्था है, व्यापार – धंधा करता है, तो व्यापार में ईमानदारी रहे, यह धोखे का पैसा बढ़िया नहीं होता, अशुद्ध पैसा बढ़िया नहीं|
आदमी जितनी प्रामाणिकता रखें, ईमानदारी, नैतिकता, शुद्धता, सरलता, भद्रता, साफ – सफाई, पारदर्शकता वो गुण व्यापार – धंधे आदि में रहे, तो आत्मा कितनी पाप से बच जाती हैं| अब धंधा भी करना है तो किस प्रकार का धंधा करते हैं| मान लिजीए एक आदमी हैं, मच्छी पालन का धंधा करता है, कोई नशीली चीजें बेचता हैं, तो वो धंधे करने जरूरी है क्या?
नशीले पदार्थों का व्यापार करे, नशीले पदार्थों का उत्पादन करे या मच्छी आदि आदि का धंधा करे| इन धंधों से तो बचे| यह धंधे जरुरी नहीं है मेरे करने के लिए, इतनी अहिंसा प्रधानता हो व्यापार में भी और निर्मलता हो|नशीली चीज़ों के धंधे से श्रावक लोग बच के रहे, तो यह एक व्यापार में भी कितनी धार्मिकता रह सके, शुद्धता रह सके|
* सप्ताह में एक शनिवार को सामायिक अवश्य करे
श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावक समाज को विशेष प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि वे ये सोचे कि सप्ताह में एक दिन शनिवार सांय 7 से 8 बजे सामायिक जरूर करे|
अगर यात्रा करनी है तो शनिवार की यात्रा न करे, या शाम के समय यात्रा में न रहे, करनी ही है तो यह देखे कि स्टेशन पर 7 से 8 का समय मिलता है क्या? एयरपोर्ट या स्टेशन जाकर भी सात से आठ बजे का समय मिलता हैं, तो वहां भी सामायिक कर ले या प्लेन – ट्रेन में समय हो, तो घर से सामायिक करके निकले| संभव हो सके तो, विशेष परिस्थिति के अलावा, सप्ताह में एक दिन शनिवार की सामायिक अवश्य करे|
*♦ शांतिपूर्ण रहे व्यवहार
आचार्य श्री ने आगे कहा कि युवा अवस्था है, तो युवा अवस्था में भी गुस्सा करना जरूरी नहीं है, भले परिवार में है, दुकान में हैं, मैं गुस्से से बचूं, बात में शान्ति रखूं|* तो अनेक चीजों में, हम व्यवहार में, आचरणों में, धर्म को काम में ले सकते हैं और अपनी आत्मा को पापों से बचा सकते हैं|
*♦ रात्रि भोजन का हो परित्याग
आचार्य श्री ने आगे कहा कि अब रात को खाने की बात है, अगर चौविहार करे तो, अति उत्तम चीज हैं| पानी पिना पड़े तो तिविहार करे| मान लो वो भी इतना संभव नहीं है, तो रात को नौ – दस बजे के बाद खाना न खाये| जितना कर सके कुछ तो संयम करे| कि यह नौ बजे के बाद रात को खाना नहीं खाना, उसका तो त्याग करे, उतना तो संयम हुआ| इस प्रकार युवा अवस्था में भी धर्म का आचरण, धर्म की साधना की जा सकती हैं|
*♦ द्रव्यों की हो सीमा
आचार्य श्री ने आगे कहा कि द्रव्यों की सीमा कर ले, कि एक दिन में 15 से या 21 से ज्यादा द्रव्य नहीं लगाऊंगा, यह भी धर्म हो सकता है, तो हम धर्म का संचय करें|
*♦ मैं अब और ज्यादा धर्म में लगू
आचार्य श्री ने आगे कहा कि मान लो अवस्था आगे बढ़ गई है, 70 – 75 – 80 वर्ष आ गये है| अब तो मैं और ज्यादा धर्म में लगू, व्यापार कर लिया, “लड़को को परणा दिया, पोते हो गये, पड़पोते होने की तैयारी, पड़पोते हो गये होगे| अब तो मैं ज्यादा धर्म में लगू,” दिन में जितनी हो सके चार – पाँच सामायिक करू, स्वाध्याय करू, साधु – साध्वीयों चारित्र आत्माओं की सेवा करू या गुरूकुल वास में, केन्द्र में सेवा करू, दो – तीन महीना, चार महीना, जितनी हो सके, ताकि परिणामों में धर्म की भावना ज्यादा रहे|
अब यह गुरूकुल वास में आप सेवा करते हैं, यह भी एक धर्म की अच्छी साधना हैं, कि घर से निवृत्त हो गये कुछ समय के लिए, यहां धर्म का वातावरण है, इतना बड़ा पाण्डाल हैं और भी स्थान हैं, *सामायिक करो, स्वाध्याय करो, सेवा करो, उपासना करो, कितने परिणाम शुद्ध रह सकते हैं|
*♦ जमीकंद का हो वर्जन
आचार्य श्री ने आगे कहा कि खानपान में जमीकंद को जितना हो सके छोड़ दे| लसण, प्याज आदि आदि को छोड़ दे| अनन्तकाय वाले जो ये वनस्पति की सब्जियां आदि हैं, उनको छोड़ दिया, त्याग कर दिया| एक अहिंसा की, व्रत की साधना हो जाती हैं|
*♦ परिग्रह का हो अल्पीकरण, सीमाकरण
आचार्य श्री ने आगे कहा कि यो प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था में तो ज्यादा धर्म की साधना और परिग्रह का कितना अल्पीकरण हो सके| मेरे पास परिग्रह है, उसको कितना मैं कम कर सकू, कितनी मोह, आसक्ति मेरी परिग्रह से कम हो सके, यह आप लोग ध्यान देंगे, तो पौढ़ावस्था, वृद्धावस्था में सघन घर्म की आय आपके पास हो सकेगी|
*♦ धर्मरूपी टिफिन रखे हर समय तैयार
आचार्य श्री ने आगे कहा कि आदमी को टिफिन तैयार रखना चाहिए| जब भी जाना टिफिन पास में हैं, फिर क्या, टिफिन ले गये आगे वहां| धर्म का टिफिन हमारे साथ में रहे| ठीक है, होगा सो होगा, टिफिन हमारे साथ है| तो यह शास्त्र में आयुष्य की बात बताई गई है, तो हम सभी यदा कदा ध्यान देकर के कि *मेरी आत्मा की साधना, आत्मा के कल्याण का काम अच्छा चलता रहे, क्योंकि आत्मा आगे जाने वाली बताई गई है, शरीर नश्वर है| हम आत्मा के हीत पर ध्यान दे यह कमनीय हैं|
*♦ सभी जीवों का अलग-अलग होता आयुष्य काल
ठाणं सुत्र के दूसरे अध्याय के 448वें सुत्र का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि *भवनपति देवों की उत्कृष्ट स्थिति 2 पल्यपम से कुछ कम की है| पच्चीस बोल का पहला बोल है गति चार| मनुष्य मर करके तिर्यंच गति, नरक गति, देव गति और वापस मनुष्य भी बन सकता हैं| देव गति में विभिन्न प्रकार के देव होते हैं| मूल उनके चार प्रकार के हैं – भवनपति, व्यांतर, ज्योतिष्क और वैमानिक|
इन चारों विभागों के देवताओं का अलग-अलग आयुष्य होता है, सर्वाधिक सर्वार्थसिद्धि देव लोक के देवताओं का 33 सागरोपम का आयुष्य होता हैं| इसी प्रकार नरक का भी नियम है कि कौन सी नरक का कितने काल का आयुष्य होगा| सातवी नारकी का सर्वाधिक उत्कृष्ट आयुष्य हो तो 33 सागरोपम का हो सकता है| उसी तरह मनुष्य और तिर्यंच का भी कौनसे काल में कितना जघन्य या उत्कृष्ट होगा, इसका भी जैन आगमों में वर्णन मिलता हैं|
*♦ पल्योपम ओपमिक काल हैं
आचार्य श्री ने आगे कहा कि देवगति के कुछ देवों का न्यूनतम 10 हजार वर्ष का आयुष्य तो होता ही है और ऊपर में भवनपति देवों में असुरेन्द्र को छोड़ करके उत्कृष्ट 2 पल्योपम से कुछ कम का आयुष्य बताया गया है| यह *पल्योपम ओपमिक काल है| यह हजार करोड़ नहीं गणणातित, गणना बाद का बहुत लम्बा कालमान होता है|*
* कोई भी प्राणी दुनिया में स्थाई नहीं होता
आचार्य श्री ने आगे कहा कि आयुष्य की यह व्यवस्था है, वो इस बात की हमें प्रेरणा देती है कि कोई भी प्राणी दुनिया में स्थाई नहीं होता| चाहे मनुष्य हो या देवता, चक्रवर्ती हो या भिखारी सबका एक दिन अवसान जरूर होगा, देहान्त तो होगा ही होगा| और तो क्या धर्म क्षेत्र के सर्वोच्च व्यक्ति तीर्थकर भगवान का भी एक दिन आयुष्य समाप्त होगा ही होगा| यह नियम सबके लिए लागू हैं| हम यह अनुभव करे, विचार करे, ध्यान दे कि मेरा जीवन अध्रुव हैं, अशाश्वत हैं, अनित्य हैं, एक दिन यह शरीर छूटने वाला है|
*♦ शरीर नश्वर : आत्मा अविनश्वर
आचार्य श्री ने आगे कहा कि शरीर हमारा नश्वर है, परन्तु आत्मा अविनश्वर है| संतोष की बात यह है कि आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह शाश्वत है और शरीर तो विनाशधर्मा हैं| शरीर अलग है, आत्मा अलग है| शरीर का स्वभाव अलग है, आत्मा का स्वभाव अलग है| भिन्नता है और दोनों के स्वरूप की भी भिन्नता है|
*♦ आत्मा के लिए मैं क्या कर रहा हूँ?
आचार्य श्री ने आगे कहा कि मनुष्य यह सोचे कि मैं शरीर के लिए क्या कर रहा हूँ और आत्मा के लिए क्या कर रहा हूँ? हम शरीर के लिए खाना, पिना, धोना, अस्वस्थ होने पर चिकित्सा करना, गर्मी सर्दी के बचाव के उपाय करना, कमाई करना| तो मोटा मोटी शरीर के लिए समय लगता है, तो हम यह ध्यान दे कि शरीर तो एक दिन छूटने वाला है, आत्मा तो आगे जाने वाली है, बताई गई है| तो मैं आत्मा के लिए मैं क्या कर रहा हूँ?* 30 – 40 वर्ष की उम्र हैं, गार्हस्थ जीवन का दायित्व निभाना पड़ता है, उस वक्त व्यक्ति यह सोचे कि मैं आत्मा की साधना लिए कितना समय निकाल रहा हूँ?
*✍ लिपिबद्ध*
स्वरुप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार प्रसार विभाग
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*