प्रमाद हमारी चेतना की, अपने प्रति अजागरूकता की, स्थिति होती हैं| जहां स्वयं के प्रति जागरूक, अध्यात्म लीनता होती हैं, वह अप्रमाद हैं|
जहां अध्यात्म से दूराव होता हैं, पदार्थ आदि के प्रति लगाव हो जाता हैं, जुड़ाव होता हैं, तो वह एक प्रकार की प्रमाद की स्थिति हो जाती है।
आचार्य हेमचंद्र ने बताया हैं, जहां अजागरूकता है, वहां प्रमाद हैं। मद्य-पान आदमी करता है, तो सुध-बुध खो देता हैं| शराब पीया हुआ, कही भी गिर जाता हैं प्रमाद में आ जाता है। निद्रा में अजागरूकता आ जाती है, गहरी निन्द में आदमी बड़बड़ा जाता हैं, खराब, हिंसा आदि के स्वप्न भी आ सकते हैं और प्रमाद हो जाता है।
मनोरंजन भरे, कर्ण प्रिय शब्दों में, रूप, गंध, भोजन आदि रस, और स्पर्श में आसक्ति आने से प्रमाद हो जाता है। कषायों – गुस्सा, अंहकार, माया, लोभ, राग-द्वेष में निमग्न होने से भी प्रमाद हो जाता है। गुस्से में आदमी इतना लीन हो जाता हैं, कि वह अपना विवेक को खो देता हैं| पता ही नहीं चलता, कि वह किसको और क्या बोल रहा हैं| जुआ खेलने वाला जुए में लीन हो जाता हैं, यह आत्मा से दूर करने वाली प्रवृत्ति हैं| जुए के कारण सम्पति भी साफ हो सकती हैं|
आचार्य प्रवर ने आगे फरमाया कि चाहे होटल हो या हॉस्टल या हॉस्पीटल, देश हो या विदेश जायें, गृहस्थ भी शराब न पीये, जुआ न खेले। शादी – ब्याह, व्यावसायिक मिटींग या राजनैतिक पार्टी सभा, कहीं पर भी, कदाचित् भी मदिरा पान न हो| इसके प्रति पूर्ण जागरूकता रहनी चाहिए| शराब न पीने का त्याग संयम है। और परिवार के लोग भी ध्यान दे, कि हमारे किशोर – युवक इस दिशा में तो नहीं जा रहे| हमारा श्रावक समाज भी मदिरा-पान इत्यादि दुर्व्यसनों से बचकर रहे। प्रमाद से बच कर अच्छा काम करें, अच्छी साधना करें, यह अभिदर्शनीय हैं।
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति