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दुख में दूसरों को दोष देने के बजाय अपने ही कर्मों को दोष देना चाहिए: जयधुरंधर मुनि

दुख में दूसरों को दोष देने के बजाय अपने ही कर्मों को दोष देना चाहिए: जयधुरंधर मुनि

वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा संसार में सुख चार है तो दुख हजार है। हर जीव दिन-रात सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है , लेकिन ना चाहते हुए भी उसे संसार के दुख भोगने ही पडते हैं। संसार में जन्म, मरण, बुढ़ापा और रोग का दुख सभी जीवो के साथ जुड़ा हुआ रहता है। शरीर व्याधि का मंदिर कहा जाता है जिसके कारण कोई ना कोई रोग उत्पन्न होते रहते हैं।

जन्म और मरण के समय होने वाले दुख को भले प्रकट ना किया जा सके लेकिन उसकी अनुभूति अवश्य ही होती है। एक ज्ञानी जीव दुख भरे संसार में भी सुखी रहने की कला सीख लेता है। जिस प्रकार बत्तीस दांतो के बीच जीभ सुरक्षित रहती है, वैसे ही साधक दुख रूप दलदल में भी सुख की अनुभूति कर सकता है।

जहां समस्या होती है वही समाधान भी मिलता है। व्यक्ति चाहे तो दुख में भी सुखी और सुख में भी दुखी बन सकता है। कांटों में रहकर भी फुल सुखी होता है पर विडंबना है मेलों में रहकर भी इंसान दुखी रहता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दुख के बिना भी दुखी बन जाते हैं और कुछ लोग सुख के बिना भी सुखी बन सकते हैं।

दुख आने पर समभाव रखने से दुख हल्का हो जाता है। मुनि ने श्रावक के ग्यारहवें गुण मध्यस्थता का वर्णन करते हुए अंजना चरित्र का प्रसंग प्रस्तुत किया। महापुरुषों के जीवन चरित्र को सुनने से हमको अनेक प्रेरणा एवं संबल मिलता है। दुख आने पर दूसरों को दोष देने के बजाय अपने ही कर्मों को दोष दिया जाना चाहिए।

जहां दोष देखने की वृद्धि रहेगी, वहां द्वेष भाव उत्पन्न होगा । व्यक्ति को गुणग्राही बनते हुए दूसरों के बजाय स्वयं के अवगुण देखना चाहिए। सामने वाला व्यक्ति मात्र निमित्त होता है जबकी उपादान कारण स्वयं कृत कर्म होते हैं। जो शिष्य अपने ही गुरु की कमी निकालें , जो संतान अपने माता- पिता की गलती निकाले और जो पत्नी अपने पति की भूल लोगों के समक्ष प्रकट करें , वह जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते ।

जो अपने माता – पिता की बात नहीं मानते उनको आगे पछताना पड़ता है । दुख के समय चिंता करने के बजाय चिंतन किया जाना चाहिए। चिंता चिता की ओर ले जाती है, जबकि चिंतन उत्थान की ओर ले जाता है।

दुख के समय धर्म ही सच्चा आलंबन होता है । हर व्यक्ति को आशावादी बनते हुए यही चिंतन करना चाहिए कि कभी ना कभी दुख दूर होंगे और उसे सुख की प्राप्ति होगी।

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