कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की कड़ी में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि ने जैन दिवाकर दरबार में धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि दान का महत्व क्या है? दान देने से आत्मा उज्ज्वल बनती है।
आत्मा पर रहे हुवे कर्म मैल साफ हो जाते है।दान देने से पुण्य का उपार्जन होता है पूण्य से सुख सम्पति आदि सब कुछ प्राप्त होता है।सुख वैभव के अलावा कभी कभी भावना में उत्कृष्टता आ जाती है।
दान देते समय तो तीर्थंकर नाम कर्म का भी बंध हो सकता है। तीर्थंकर गोत्र बांधने के 20 बोल है जिसमें कई तीर्थंकर परमात्माओ ने दान देकर के तीर्थंकर पद प्राप्त किया है लेकिन तीर्थंकर पद तभी प्राप्त हो सकता है।
जब हम उत्कृष्ट भावना में रसायन होना , शील का पालन करना चाहिये चतुर्विध संघ की सेवा करते हुवे भी साधर्मी की भक्ति करते हुवे भी तीर्थंकर गोत्र प्राप्त कर सकते है।
दान देने से कभी तीर्थकर न भी बने तो तीसरे भव में या 15 वें भव में या फिर अर्ध पुदगल परावर्तन काल मे तो दान देने वाली आत्मा अवश्य ही कर्म काट करके मोक्ष पद के अधिकारी बन सकते है ၊ हमारे भारत की हमेशा से संकृति रही है दान देने की और अतिथि सत्कार की पूर्व में कोई भी अतिथि हमारे दरवाजे पर आता तो अतिथि देवो भव हमारे लिये अतिथि देवता भगवान के समान होता था। आज तो मेहमान देखकर के प्राण सूखते है पहले कहते थे अतिथि कब आवोगे अब कहते है अतिथि कब जावोगे।