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दया धर्म का मूल है: जयधुरंधर मुनि

दया धर्म का मूल है: जयधुरंधर मुनि

वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने श्रावक के दसवें गुण दयालुता का वर्णन करते हुए कहा दूसरों के दुख में दुखी होना ही सच्ची दया है जबकि दूसरों के दुख में सुखी होना क्रूरता का लक्षण है। मानव होकर जिसके दिल में करुणा की रस धारा नहीं बहती है, वह हृदय नहीं पत्थर है। जिस प्रकार कोमल मिट्टी में ही फसल उगती है ,उसी प्रकार कोमल ह्रदय में ही सदगुण विकसित होते हैं।

दया धर्म का मूल है । दया रूपी नदी के किनारे ही धर्म की फुलवारी लगती है । दयालु व्यक्ति दूसरे की आंखों में आंसू देख स्वयं के आंसू रोक नहीं पाता है। पर पीड़ा को दूर करने के लिए जो अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार होता है वही वास्तव में श्रेष्ठ इंसान बनते हुए दया के गुण को अपना सकता है । करुणा मानवता का लक्षण होता है। दया सुख की बेलडी है जिससे मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति हो सकती है।

दया के फलस्वरूप सद्गति, सौभाग्य, सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है । जघन्य श्रेणी का व्यक्ति केवल स्वयं का ही चिंतन करता है, जबकि उत्कृष्ट श्रेणी का व्यक्ति स्व और पर दोनों का चिंतन करता है। अनुकंपा सम्यक्त्व का लक्षण होता है। कोई भी धर्म हिंसा को बढ़ावा नहीं देता।
इस अवसर पर बकरीद पर पशुओं की आत्मा शांति के लिए नवकार मंत्र का सामूहिक जाप किया गया।

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