चेन्नई. किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरीश्वर ने कहा सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक चारित्र में सम्यक चारित्र महत्वपूर्ण है। ज्ञान की तीक्ष्णता ही चारित्र है । इन तीनों के अलावा विरति की शोभा विवेक में है। विवेक में औचित्य का पालन होता है।
विवेक के चार प्रकार होते हैं-इस संसार में जो छोडऩे योग्य है उसका त्याग करना। जो कर्तव्य करने योग्य हो वह अवश्य करो। जो पात्र प्रशंसा के योग्य है उसकी प्रशंसा करो और जो बात सुनने योग्य है उसका श्रवण अवश्य करो। उन्होंने कहा जिनशासन का इतिहास बहुत ही वैभवशाली व गौरवशाली है। अनुशासन का पर्याय जिनशासन है ।
उन्होंने कहा पंचेंद्रिय जीव को ही मन की प्राप्ति होती है । यह मन एक क्षण में सिद्धशिला तक भी ले जाता है, वहीं यह सातवीं नरक में भी ले जा सकता है। चित्त की मलिनता का हमें त्याग करना चाहिए। मन को कभी बिगाडऩा नहीं चाहिए । नए कपड़े पर दाग लग जाए तो हमारा मन अस्थिर हो जाता है लेकिन ऐसे समय पर चित्त को शांत रखना चाहिए । प्रभु की भक्ति करते समय चित्त को तल्लीन रखेंगे तब ही मन में उनके प्रति अहोभाव ला सकते हैं ।
उन्होंने कहा दूसरों के दुख में खुश होना अपराध है । यह चित्त को मलिन करने वाला तत्व है। यदि हमारे कारण दूसरों को पीड़ा पहुंचे तो कर्मबंध होगा। मन की मलिनता अगर अन्दर से खटकने लगे तो कल्पना करो मेरे चित्त में दाग पैदा न हो जाए, किसी के प्रति दुर्भाव पैदा न हो । हमें शब्दों का नहीं, भाव की स्पर्शना करनी है । उन्होंने कहा चित्त की सुरक्षा अति महत्वपूर्ण है ।