चेन्नई. कौन-से पल किस जीवन का बंध हो जाए कहा नहीं जा सकता। शालीभद्र, अर्जुनमाली भी धर्म मार्ग पर चलेंगे यह कोई नहीं जानता था। तन से परे जो चेतना की सत्ता है उसका ज्ञान हो जाए तो तन का नियंत्रण आत्मा पर नहीं रहता है।
शुक्रवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का उत्तराध्ययन सूत्र वाचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि जम्बूस्वामी के पूछने पर पंचम गंधर्व सुधर्मा स्वामी इसे शब्दों में प्रदान करते हुए कहते हैं कि जो सभी समस्याओं के समाधान में समर्थ हैं वही तीर्थंकर बनते हैं? ऐसे वचनातीशय से जो गंधर्व शब्दों में बंध करते हैं वे गंधर्व कहलाते हैं। यदि समर्थ व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त हो जाए तो शिकारी भी सिद्ध पथ का यात्री बन जाता है, उसका जीवन परिवर्तन हो जाता है।
मालिक यदि मालिक बनकर रहे तो नौकर भी ईमानदारी से काम करता है और यदि नौकर मालिक बन जाए तो मालिक को भीखारी बना देता है। उसी प्रकार जब तक आत्मबोध शक्ति का जागरण न हो तब तक शरीर हमारे अनुसार काम नहीं करता है। आत्मबोध होने का कोई निश्चित समय नहीं है यह पलभर में कभी भी और कहीं भी हो सकता है। सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को परमात्मा का संदेश देते हुए एसे अनेकों प्रसंग बताते हैं कि कभी भी परमात्मा बना जा सकता है, इसका कोई समय नहीं है।
राज संयेती शिकार करने के लिए अपनी पूरी सेना को साथ लेकर वनों में जाता और निर्दयतापूर्वक शस्त्रों वन्य जीवों का शिकार करने का शौकीन था। एक दिन वह उसी प्रकार जाता है और एक हिरण को अपना निशाना बनाता है। तीर लगने के बाद भी हिरण अपने अंतिम श्वास तक दौड़ता रहता है और एक मुनि जो घने जंगल में तप ध्याम मग्न हैं उनके चरणों में जाकर अंतिम श्वास लेता है। राजा उसके पीछे-पीछे दौड़ता हुआ जाता है और उन मुनि को देखकर भयग्रस्त होता है कि मैंने मुनि के इस प्रिय जीव को मारकर जघन्य अपराध कर दिया।
राजा अपराध बोध के कारण भयग्रस्त होकर मुनि से बार-बार क्षमा याचना करता है, मुनि का ध्यान टूटने पर वे भयग्रस्त राजा और तीर से मरे हुए हिरण को देखकर राजा से कहते हैं कि जिस प्रकार तुम्हें अपना जीवन प्रिय है और अभय की कामना है वैसे ही संसार के प्रत्येक जीव को अपना जीवन प्रिय है और उसे भी अभय की जरूरत है। इस हिरण की तरह तुम्हें भी मृत्यु के पास जाना पड़ेगा। राजा को अभयदान देकर मुनि कहते हैं कि तुम भी सभी जीवों के अभयदाता बनो। सत्ता और संपत्ति चमकती हुई बिजली के समान चंचल है, वह कहां गिरेगा किसीको पता नहीं है। राजा चिंतन करता है कि जिस प्रकार मैंने इसका शिकार किया है उसी प्रकार कोई मेरा भी शिकार करेगा। मृत्यु अवश्यंभावी है। राजा मुनि से अभय पाकर पश्चाताप करते हुए शस्त्र और हिंसा का मार्ग छोड़ अहिंसा और संयम का पथ अपनाता है।
आगम में कहा गया है कि मन, वचन और काया की असंयमी आत्मा भयंकर शस्त्र के समान है। अंत समय में यदि संतों का सानिध्य प्राप्त हो वह परम सौभाग्यशाली है। कभी किसी के लिए भयंकर नहीं, शुभंकर बनें। किसी को हम से भय न लगे। अपने परिवार में किसी को हमसे डर नहीं लगे ऐसा अभय का साम्राज्य का निर्माण करना चाहिए। भय से हर आदमी उसके विपरीत जाता है। वह छिपकर दगाबाज बनता है और पीछे से वार करता है। यदि अभय का वरदान दोगे तो कोई दगाबाज नहीं होगा। अभय के दाता बनोगे तो तुम्हें भी अभय प्राप्त होगा। मंगलमय बनने वाले को मंगल ही प्राप्त होता है। आत्मा के साथ पाप और पुण्य ही जाते हैं। जो सत्ता, संपत्ति साथ नहीं जानेवाली उसके लिए पाप कर्म मत करो। इस सत्य से इन्कार करने पर भी यह सत्य अटल है।
हम सभी परमात्मा से मिले अहिंसा और संयम के धर्म रूपी वृक्ष के पत्ते हैं। हमें इस वृक्ष की कीमत पता नहीं है। यदि हम इसकी कीमत नहीं समझेंगे तो आनेवाली पीढी़ को कैसे समझा पाएंगे। यदि स्वयं धर्म नहीं कर सकते तो आनेवाली पीढ़ी को हमें धर्म वंचित करने का कोई अधिकार नहीं है। जीवमात्र के कल्याण के लिए परमात्मा की दी हुई वाणी को को सुनें और ग्रहण करें तो ही आनेवाली पीढ़ी इससे जुड़ेगी। परमात्मा के निर्वाण कल्याणक की परंपरा में परमात्मा के चरणों में बैठने का सौभाग्य स्वयं के साथ अपने स्वजनों को जरूर दें।
राजा संयेती उन गुरु से दीक्षा लेकर ज्ञान, तप और संयम से समय व्यतीत करते हैं और उनके मुखमंडल पर तप और संयम का अद्भुत प्रकार होता है। वे विचरण करते हुए एक संत से मिलते हैं जो सभी जीवों के सभी जन्मों के बारे में जानने वाले हैं। संयेती उनसे उस ज्ञान की जिज्ञासा करने पर वे कहते हैं कि यह ज्ञान जिनशासन में है। वे संत संयेती राजा को अनेकों प्रकार के प्रसंग और ज्ञान प्रदान करते हैं, सभी तीर्थंकरों के चरित्र, साधना और मोक्ष प्राप्ति सभी सुनाते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में कई समस्याओं को जानने से उनका समाधान हो जाता है और किन्हीं समस्याओं को नहीं जानने और श्रद्धा मात्र वे सुलझ सकती है। हर कार्य के लिए पुरुषार्थ ही जरूरी नहीं है। यदि जीवन में विनय आ जाए तो भी अनेकों समस्याओं का निदान हो जाता है। प्रोटोकाल विनय नहीं है, यह तो अन्तरात्मा से जन्मता है कि किसी के चरणों में झुके बिना रह ही नहीं पाएं, ऐसा जीवन सफल हो जाता है।
उत्तराध्ययन ग्रंथ के बारे में धर्म की किसी भी परंपरा और मत को कोई संदेह नहीं है, यह सभी को स्वीकार्य है, सबसे ऊपर है। तीर्थंकर परमात्मा की इस अंतिम वाणी में हर समस्या का समाधान है। अपने जीवन में परमात्मा का धर्म छोड़कर अन्यत्र न भटकें। परमात्मा की वाणी को विश्व की वाणी बनाएं। इससे कोई व्यर्थ और अनर्थ नहीं केवल तीर्थ ही जन्मता है।
श्री अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस, नई दिल्ली के राष्ट्रीय अध्यक्ष मोहनलाल चोपड़ा के नेतृत्व में कांफ्रेंस के पदाधिकारियों ने उपाध्याय प्रवर के दर्शन वंदन का लाभ लिया। चातुर्मास समिति की ओर से 28 अक्टूबर को आयोजित तप महोत्सव में सज्जनबाई झामड़ को 101 उपवास तप की पच्चखावणी व ‘‘तप चंद्रिका’’ उपाधि प्रदान की जाएगी।