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ज्ञान वाणी

जीवन में पसंदगी और नापसंदगी के चक्र से बाहर निकलें : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

जीवन में पसंदगी और नापसंदगी के चक्र से बाहर निकलें : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. शनिवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने कहा कि कैसे जीव पदार्थ का निर्माण करता है और पदार्थ जीव को अपना गुलाम बना लेता है।

कैसे आदमी डिप्रेशन और निराशा में चला जाता है। अनादीकाल से ही जीव और पदार्थ का यह मेलजोल चलता आ रहा है। पदार्थ के प्रति जीव का आकर्षक और विकर्षण ही उसे मृत्यु के चक्र में उलझाकर रख देता है। आगम कहते हैं कि जीव पुद्गल को बनाता है और पुद्गल जीव को बनाते हैं।

कोई वस्तु मिल गई तो अन्तर में उसकी मांग बढ़ जाती है, मिलने के बाद उसे संचित करने की भावना होती है। नहीं मिली तो उसे झपटने की भावना होती है। इस प्रकार जीव मोह में चला जाता है और इन्द्रियों के वश में होकर मौत के मुंह में चला जाता है।

व्यक्ति अपनी भावनाओं के लिए भी चोरी, झूठ और पाप करता है। परमामा कहते हैं कि किसी से गुस्सा आए और मौका न मिलता है तो उसका परिग्रह कर लेते हैं, इसी प्रकार लोभ, माया का हम जो स्टोर करते हैं, उसी की डिमांड बढ़ती जाती है।

आदमी किसी पदार्थ में रस लेता है और उसी की भावनाओं में खो जाता है। घटना तो चली जाती है लेकिन घटना को स्टोर कर लेना ही भावों के लिए पाप कर्म है। यह मन का खेल ऐसे चलता रहता है। हमारे मन में वस्तु को लेकर पसंदगी या नापंसदगी का भाव न आए। हम जैसा सोचते हैं उसी की हमारे अन्तर में शुरुआत हो जाती है और वैसे ही अच्छा या बुरा परिणाम आता है। हमें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए और अपनी आस्था पर अटल रहना चाहिए।

जिस प्रकार आनन्द श्रावक को वैमानिक देव धर्म से डिगाने का प्रयास करता है लेकिन वह उसकी भावनाएं नहीं बदलती है और वह धर्म पर अडिग रहता है और देव उसके सामने हारकर नतमस्तक होता है, उसे प्रणामकर उपहार देकर जाता है। समस्याओं से कभी हार न मानें, अपनी भावनाएं न बदलें, कभी मन में नकारात्मक भाव न लाएं। कष्टों में पाप के उदय को दोष न देते हुए अपने शुभ कर्मों में जुट जाएं।

किसी की अच्छाइयां को याद करेंगे तो आपमें भी उनका उदय हो जाएगा और बुराइयों और कमियों को याद करेंगे तो वे आपमें भी आ जाएंगी। इसलिए भावना करें कि मैं कभी किसी पर कोई नकारात्मक कमेंट््स नहीं करूंगा। सदैव अच्छी बातों को स्वीकारें और बुरी बातों को छोड़ दें।


किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना के बारे में नकारात्मक या द्वेष की भावना आ जाए तो उसका जहर आपमें बनना शुरू हो जाएगा। इसी प्रकार आसक्ति हो जाए तो भी वह मीठे जहर के समान है। जो इन दोनों से बचता है वह इन्द्रियों को जीतकर उत्तम जीवन जीता है।

अपने जीवन में लाइक और डिस्लाइक से बाहर निकलें। कोई बात हम स्वयं न मानें तो हमें पीड़ा नहीं होती है लेकिन दूसरा नहीं माने तो हमें पीड़ा होती है, ज्ञान और श्रद्धा मन में नहीं है तो दु:ख नहीं होता लेकिन प्रसिद्ध और सम्मान न मिले तो हमें दु:ख होता है। इस प्रकार की भावनाएं हमारी आत्मा के मूल तत्व- ज्ञान, दर्शन और चरित्र के लिए सांप के विष के समान भयंकर है।

हमारे अन्तर में कर्म परमाणुओं की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, उससे जैसे संदेश बाहर जाते हैं, वैसे ही कर्मबंध बंधते जाते हैं। यह एक्शन, इमोशन और रिएक्शन का कर्मों का खेल हम निरंतर खेलते रहते हैं। कर्मों का बंध और क्षय सभी आपके हाथ में है। परमात्मा कहते हैं कि आदमी कर्मों का गुलाम नहीं मालिक है। इसका निर्णय आपकी आत्मा का है। जब आप सोच लें तो अपने कर्मों को उदय होने से रोक भी सकते हैं और क्षय भी कर सकते हैं।

सदैव ज्ञान और ज्ञानी से जुड़ें, आराधना और आराधक से जुड़े। श्रद्धा व श्रद्धाशील का सपोर्ट करें। दर्शनावरणीय कर्मों का खेल सपनों में भी चलता रहता है और कितने ही कर्मबंध हम अनजाने में ही करते हैं। मोहनीय कर्म दो प्रकार के होते हैं-इमोशन व प्रैक्टिकल।

कई लोग दान, धर्म और सेवा करते हैं लेकिन अन्तर में उसकी भावना न होने से चरित्र नहीं बनता है। किसी की भावना अच्छे कार्यों की होती है लेकिन क्रिया नहीं कर पाता है। अन्तराय कर्मों के कारण क्रिया कर लेते हैं लेकिन अन्तर की अनुभूति नहीं होती है। अन्तरार्य कर्म सबसे भयंकर है। परमात्मा कहते हैं कि जो तुम्हें नहीं मिला वह दूसरों को देने का प्रयास करो और जिनको मिला है उनसे ईष्र्या मत करो।

सुख-दु:ख में परमात्मा को महसूस करें। सफलता में अहंकार नहीं और असफलता में दु:ख नहीं करना। दूसरों की अच्छाईयां देखें और स्वयं की कमियों को खोजें। अपने मन, वचन और कर्म में समानता रखें, कभी स्वयं के साथ चीटिंग न करेंं। देवगति के बंध में भी यदि अशुभ नामकर्म हो गया तो देवलोक में भी तिरस्कार और दु:ख प्राप्त होते हैं। अपने स्वजनों और घर-परिवार में अशुभ कर्मों के आने के सारे रास्ते बंद कर दें, पारदर्शिता रखें, कहीं छल-कपट का माहौल न हो तो पूरे परिवार का शुभ नामकर्म का बंध हो जाए। ऐसा सुन्दर माहौल अपने घरों में बनाने की जरूरत है।

यदि अशुभ कर्मों का बंध हो भी जाए तो उनको दोष देने की बजाए अपने शुभ कर्मों की गति को बढ़ा देना चाहिए। परमात्मा की भक्ति और प्रत्येक जीवमात्र से प्रेम करना शुरु कर दें तो अशुभ भी शुभ और असाता साता में बदल जाएगा।

परमात्मा कहते हैं कि किसी के कर्मों को दूसरा नहीं बदल सकता लेकिन उसकी लेश्या या औरा जरूर बदल सकता है, उसे अच्छी या बुरी भी बना सकता है। दूसरों के कारण से डिस्टर्ब भी हो सकती है और डेवलप भी हो सकती है। कृष्ण लेश्या वाले जीव को शुल्क लेश्या के शिखर पर पहुंचाया जा सकता है और शुक्ल लेश्या वाले जीव को कृष्ण लेश्या के गर्त में गिराया जा सकता है। समाचारी के दसों सूत्र केवल कृष्ण लेश्या को शुल्क लेश्या बनाने के हैं उनका पालन करना चाहिए।

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