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जीवन जीने की कला सिखाता है धर्म:  जयधुरंधर मुनि

जीवन जीने की कला सिखाता है धर्म:  जयधुरंधर मुनि
वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने जयमल जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में चल रहे हैं श्रावक के 12 व्रत के शिविर में कहा धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है। वैसे हर इंसान को जीवन प्राप्त होता है लेकिन उस जीवन को कैसे जीना यह कला सीखनी जरूरी है।
जिसे जीवन जीने की कला नहीं मालूम वह अपने इस दुर्लभ मनुष्य भव को व्यर्थ गंवा देता है। एक सभ्य धार्मिक व्यक्ति की यही पहचान है कि वह जीवन सही ढंग से जीता है। जो भगवान महावीर के उपदेशों के अनुसार न्याय नीति से जीवन जीता है उसका जीवन सफल बन जाता है। अपने जीवन को वन नहीं अपितु उपवन बनाना चाहिए।
मात्र जीवन जीने की कला सीखने से ही कुछ नहीं होगा उसे जीवन में उतारना भी चाहिए । धर्म मात्र जानने के लिए नहीं अपितु व्यवहार में भी उतारना चाहिए। इंसान का जीवन ऐसा होना चाहिए जो दूसरों के लिए भी प्रेरणादायक बने। जो भी साधक जीवन जीने की कला जान लेता है वह अपने जन्म और मरण की श्रृंखला को शीघ्र ही विराम दे सकता है ।
एक जन भी खाता- पीता है , पहनता – उड़ता है और एक जैन भी यही क्रियाएं करता है लेकिन दोनों में अंतर यह होता है जैनियों के खान – पीन में भक्ष्य- अभक्ष्य का विवेक रहता है- क्यों खाना, क्या खाना, कितना खाना? यह सारा बोध रहने से उसके सभी क्रियाओं में त्याग वृत्ति भी जुड़ी रहती है।
मुनि ने श्रावक के सातवें व्रत में उल्लेखित 26 बोलों के क्रम को गति प्रदान करते हुए कहा की एक श्रावकों सभी प्रकार के रसों से युक्त संतुलित आहार करना चाहिए । जिससे शरीर में बीमारी पैदा नहीं होती । एक दिन में कितने प्रकार के आभूषण पहनने की भावना होती है उसका परिमाण किया जाना चाहिए ।
घर या दुकान के भीतर नकारात्मक उर्जा को हटाने के लिए अगरबत्ती लोबान आदि का प्रयोग किया जा सकता है किंतु उस वस्तु की भी मर्यादा करनी जरूरी है। पानी को छोड़कर शेष सभी प्रकार के पेय पदार्थ का उपयोग जिस समय श्रावक करता है।  उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी प्रकार के विजातीय पदार्थ का सेवन एक समय में एक साथ में ना करें।
परिपूर्ण भोजन सामग्री के अंतर्गत मिठाई , रंदेज, दाल आदि का उपभोग शरीर को चलाने के लिए किया जाता है किंतु उन सब पदार्थों के भी एक सीमा बांधनी जरूरी है।  चार महाविगय और पांच विगयों का उल्लेख करते हुए मुनि ने कहा अत्यधिक विगय सेवन करने से विकृति पैदा होने की संभावना हो सकती है। इसीलिए परिमित मात्रा में इन विगयों की शारीरिक पौष्टिकता को ध्यान में रखते हुए सेवन करना चाहिए।
मध्यान्ह 1:00 से 4:00 बजे तक श्री जयमल जैन आध्यात्मिक ज्ञान ध्यान संस्कार शिविर का आयोजन हुआ जिसमें अनेक बालक – बालिकाओं ने ज्ञानार्जन किया । शांतिलाल लुंकड़ , कुसुम ओस्तवाल, प्रेमाबाई गादिया ने शिविर में अपनी सेवाएं प्रदान की। इस अवसर पर महिपाल चौरडिया, दिनेश भंडारी , अरिहंत सामरा, केएल जैन भी उपस्थित थे।

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