चेन्नई. अरिहंत शिव अपार्टमेंट में विराजित मुनि संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय ने कहा कुछ श्रोता एक कान से सुनता है और दूसरे कान से निकाल देता है। कुछ कान से सुनकर मुंह से निकाल देते हैं। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो कान से सुनकर जिनवाणी को हृदय में उतार लेते हैं। सच्चा श्रोता वही है, जो जिनवाणी को अमृतवाणी के समान पीता है।
महापुरुषों का आचरण ही हमें सदाचरण की ओर ले जाता है। आत्मा के आधार पर ही आध्यात्मिक धर्म टिका हुआ है। आत्मा है तो धर्म है। शरीर के मरणधर्मा होने पर भी हम शरीर का ध्यान रखते हैं, शरीर को भोजन देते हैं, इसकी चिकित्सा कराते हैं। आत्मा तो शाश्वत, अजर-अमर, निराकार है। आत्मा एक ऐसा तत्व है जिसे शस्त्र छेद नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता और न ही हवा उसे सुखा सकती है। इसका न जन्म है और न ही मरण, न आरंभ है और न ही अंत।
आत्मा नित्य-शाश्वत है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। आत्मा के सूक्ष्म होने की वजह से हम इंद्रियों से उसे देख नहीं सकते। आत्मा नाम का तत्व सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान रहता है। वस्त्रों के पुराने हो जाने पर जिस तरह व्यक्ति नये वस्त्र धारण कर लेता है, उसी तरह आत्मा भी शरीर के जीर्ण हो जाने पर एक शरीर को छोडक़र दूसरा शरीर धारण कर लेती है।
देह बदलती है, पर आत्मा अमर रहती है। आत्मा न तो मरती है और न ही किसी को मारती है। आत्मा और शरीर अलग है। मुनिद्वय 28 व 29 नवंबर को राजेन्द्र भवन, 30 नवंबर को चूलै और 1 व 2 दिसम्बर को लुम्बिनी अपार्टमेंट में रहेंगे।