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ज्ञान वाणी

जिंदगी में कभी भी किसी को असंभव नहीं कहें : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

जिंदगी में कभी भी किसी को असंभव नहीं कहें :  उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. शनिवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल,पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवंतीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया।

वर्धमान शरणं पवज्जामी उच्चारण के साथ धर्मसभा कीशुरुआत हुईउन्होंने कहा कि परमात्मा को जानना हो तोउनके धर्म और उनके धीरज को जानें। अपने संकटों को बड़ा मानें, अपने गुरु, परमात्मा को बड़ा मानें। जिसने संकट बड़ामान लिया उसकी पराजय उसी समय हो गई। परमात्मा कीशक्ति अनन्न्त है।
इस एहसास के साथ जो चलता है उसेसंकट भी शक्ति देकर जाते हैं और यह हम पर निर्भर करताहै।

जब हम ग्रहण करने के लिए एक ही रास्ते पर निर्भर रहते हैंतो परेशान होते हैं।

मुंह की अपेक्षा रोम छिद्रों से लियाजानेवाले वाला आहार शत प्रतिशत शरीर के काम आता है।चाहे कितनी ही आहार की आवश्यकता हो यदि मर्यादा केअनुसार आहार नहीं मिले तो ग्रहण नहीं करना चाहिए। जोअपनी मर्यादा के लिए कुर्बान रहता है, मर्यादा उस परमेहरबान होती है। इस शरीर में अनन्त शक्ति है। इसे जितनाआराम देंगे उतना ही यह कमजोर होता है। जिनका जीर्णशीर्णशरीर हो जाए वहे भी संलेखना लेने के लिए पहाड़ पर चलेजाते हैं, वे रानियां जो कभी नंगे पैर चली ही नहीं, वे भी दीक्षालेकर भिक्षाचर्या करने के लिए चल पड़ती है, ऐसा शक्ति औरसामथ्र्य इस शरीर में है।

परमात्मा कहते हैं कि ऐसा कभी सोचें कि मुझे कोई शरणनहीं, सुरक्षा नहीं। यह सोच तुम्हें कमजोर कर देगी। जो व्यक्तिसोचता है कि मैं हर संकट में जीत सकता हंू, वे जिंदगी मेंकभी हारते नहीं। कभी भी स्वयं को संत्रस्त नहीं करें, परेशाननहीं करें, हीन नहीं समझें।

मैं स्वयं को परेशान नहीं करता तोदूसरा भी नहीं कर सकता।

मन में नफरत का भाव रखें, इससे सामने वाले की अशुभऊर्जा को आपमें आने का रास्ता मिल जाता। शरीर चाहेकितना भी जीर्णशीर्ण हो जाए, मन में कभी भी अरति कोप्रवेश करने देना। स्वयं को कभी नापंसद करें। जो इससेबच जाता है वह मेधावी है। वही स्वयं की सुरक्षा करने मेंसमर्थ है। मर्यादित जीवन में रहें, स्त्री के लिए पुरुष और पुरुषके लिए स्त्री जब मर्यादा के बाहर जीते हैं तो दलदल बन जातेहैं।

प्रगति के रास्ते पर चलना हो तो कंफर्ट जोन को छोडऩे कीतैयारी रखो। कभी भी मन में अनिष्ट की आशंका आने दें,नहीं तो उसी पल अनिष्ट का आगमन शुरू होता है। जिसकीसोच में दुर्भावना, निन्दा और हिंसा का भाव नहीं है वहपापदृष्टि से मुक्त होता है। उसके लिए संकट सौभाग्य का मार्गबन जाता है।

परमात्मा कहते हैं कि सहयोग लेने में संकोच नहीं और सुविधाके लिए लालायित नहीं होना चाहिए। यदि सहयोग नहीं मिलेतो दु:खी मत हो। भविष्य पर ताला मत लगा,आज नहीं तोकल मिल सकता है। व्याधि के पलों में स्वयं की खोज करें, उपचार का अभिनन्दन नहीं। ऐसा करने वाला सनतऋषि, नेमीराजा और अनाथीममुनि बनता है जो आत्मतत्त्वों कोउपलब्ध हो गए।

प्रशंसा से सदैव बचें एवं स्वयं का मूल्यांकन करें। दूसरों केअभिनन्दन करने से मन में अहंकार उपजता है। महावीर काएक पल के अहंकार ने उन्हें मरीची के भव के बाद कभी ज्येष्ठभाई बनने ही नहीं दिया। सफलता मिले तो स्वयं का दुर्भाग्यमानना स्वयं का हनन है। स्वयं के साथ छल होने पर उसेसबक समझने वाला संकटों पर विजय प्राप्त करता है।परमात्मा चार बातें कहते हैं धर्म को आगे रखकर सेवा करें, तो जीवन में श्रद्धा का जन्म हो सकता है, अन्यथा अहंकार काजन्म होता है। परमात्मा कहते हैं कि जिंदगी में कभी किसीको असंभव नहीं कहें।

इसलिए परमात्मा कहते हैं कि प्रमाद मत कर। कितने ही प्यारऔर सेवा करने वाले होंगे तो भी आपके बुढ़़ापे को कोई रोकनहीं पाएगा। जो पापकर्मों से, दुर्भावना के द्वारा धन इक_करते हैं उन पर धन कब्जा कर लेता है। जिसके मन में दुश्मनीहो उसे हर जगह नरक समान दु: मिलते है। जो पुण्य कर्म सेधन कमाते हैं उनको तो नरक से बचाने को भी उसके भाईदेवलोक से जाते हैं। जब धन पुण्यकर्मों से कमाया जाता हैतो उसको भाईयों का सहयोग मिलता है, उसके धन कासदुपयोग होता है।

प्रमादी व्यक्ति अपने धन से भी सुरक्षा नहीं प्राप्त सकताजबकि अप्रमादी व्यक्ति बिना धन का भी तिर जाता है।धर्मात्मा को धन कमाना ही चाहिए और पापात्मा को निर्धनही रहना अच्छा है। जिसके मन में परोपकार, दया और धर्मका भाव है उसे धन कमाना ही चाहिए। जिसने अपनीइच्छाओं को रोक दिया उसने मोक्ष को पा लिया। मौत आने केबाद विवेक, त्याग करना मुश्किल है, जिसने पूर्वतैयारी कीहो। अनुकूलता बहुत लुभावनी होती है जो इसमें फंस गयाउसके लिए वह बेड़़ी बन जाती है। परमात्मा कहते हैं किसुविधाओं में मन को मत डूबाओ। क्रोध के आक्रमण से स्वयंकी रक्षा कर, अहंकार दूर कर। क्रोध के समय क्षमा कापरकोटा बना लेना चाहिए। अपने अन्दर के अहंकार को छोड़कपट का आचरण मत कर। जो इन्हें जीता है वही समाधि कीओर बढ़ता है।

मृत्यु हमारे जीवन में अवश्यंभावी है इसे टाला नहीं जा सकतालेकिन सुधारा जा सकता है, उस पल मृत्यु भी हो सकती हैऔर मोक्ष भी। जीवन के परम सत्य का भगवत्तता में रुपांरितकरने का सामथ्र्य रखता है। परमात्मा के वरदान हमारे जीवनमें सत्य हो जाए। मृत्यु से सहले समाधि का जीवन बना लें।भावना रखें कि मैं अनादिकाल से मरता आया हंू, मौत नेअसंख्य बार मारा है, परमात्मा के वरदान इस जन्म में मिले हैंतो मृृत्यु को जय करूंगा। कई गृहस्थ ऐसे भी होते हैं जो साधुसे भी श्रेष्ठ संलेखना समाधि प्राप्त कर लेते हैं।

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